चैतन्यपिंड छुं, सिद्ध भगवान जेवा अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छुं. बहारमां सुंदर आहार वगेरे अनुकूळ सामग्री
होय तेनुं वेदन आत्माने नथी, तेम ज शरीरमां तीव्र रोग वगेरे प्रतिकूळता होय तेनुं वेदन पण आत्माने नथी;
संयोगोने कारणे आत्माने सुख–दुःखनुं वेदन नथी. स्वर्गनी इन्द्राणी आवे तेने कारणे आत्माने हर्ष के सुख नथी,
अने वाघण आवीने शरीरने फाडी खाय तेने कारणे आत्माने शोक के दुःख नथी. आत्मा कोई संयोगोने लीधे सुख–
दुःखने भोगवतो नथी पण पोताना भोक्तृधर्मथी सुख–दुःखने भोगवे छे, पोतानी पर्यायनो एवो धर्म छे के हर्ष–
शोकरूप सुख–दुःखने भोगवे छे. साधक धर्मीने पण आ धर्म लागु पडे छे, केम के तेने पण हजी पर्यायमां हर्ष–शोकना
भावोनुं थोडुंक वेदन थाय छे. पण आवा भोक्ताधर्मने यथार्थपणे जाणे तेने अनंतधर्मोना आधाररूप शुद्ध
चैतन्यद्रव्यनुं सम्यग्ज्ञान होय छे, एटले क्षणिक विकारनुं वेदन अने त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभाव ए बंनेनुं भेदज्ञान
तेने वर्ते छे तेथी तेने ते हर्ष–शोकरूप विकारनुं साक्षीपणुं वर्ते छे. पर्यायमां हर्ष–शोक थाय छे त्यां ते जाणे छे के मारुं
आखुं चैतन्यतत्त्व आ हर्ष–शोकना वेदन जेटलुं नथी, तेम ज कोई निमित्त के संयोगना कारणे पण मने हर्ष–शोक
थयो नथी, पण मारी पर्यायना भोक्ताधर्मने लीधे हर्ष–शोकनुं वेदन थाय छे; ते भोक्ताधर्म पण मारो छे. ‘सुख–
दुःख भोगववा ते शरीरनो धर्म छे’ एम अज्ञानी लोको माने छे, परंतु शरीर तो जड छे तेने कांई सुख दुःखनो
भोगवटो होतो नथी; सुख–दुःखने भोगवे तेवो आत्मानो एक धर्म छे.
अवस्था पूरतो ज छे. वळी आत्मानो आवो धर्म छे–एम जाणे तो आत्मद्रव्यने पण जाणे ने सुख–दुःखनो साक्षी
थई जाय, अने हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं अनुक्रमे तेने टळतुं जाय. भोक्तृनयथी हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं कह्युं ते तो
एक धर्म छे, ते धर्मने जोनारनी द्रष्टि एकला धर्म उपर होती नथी पण धर्मी एवा चैतन्यद्रव्य उपर तेनी द्रष्टि जाय
छे, एटले शुद्धद्रव्य उपर द्रष्टिना बळथी अल्पकाळमां ते हर्ष–शोकना भोक्तापणाथी रहित थई जाय छे; पछी तेने
आवो भोक्ताधर्म रहेतो नथी पण अतीन्द्रिय आत्मिक सुखनो ज भोगवटो रहे छे.
‘पर्यायमां हर्ष–शोकरूप सुख–दुःखनो हुं भोक्ता’–एम भोक्ताधर्मने जाणे छे; तेथी तेने हर्ष–शोकना भोगवटानुं
साक्षीपणुं पण भेगुं ज रहे छे. अज्ञानी पर्याय द्रष्टिथी एकला हर्ष–शोकना भोगवटाने ज जुए छे एटले तेने
साक्षीपणुं नथी रहेतुं. ज्ञानी पर्याय उपर द्रष्टि राखीने आ धर्मने नथी जोता, पण शुद्धद्रव्य उपर द्रष्टि राखीने आ
भोक्ताधर्मने जाणे छे, एटले तेनी द्रष्टिमां मुख्यता भोक्ताधर्मनी न थइ पण शुद्ध आत्मद्रव्यनी ज मुख्यता थइ;
शुद्धआत्मानी मुख्यतामां तेने हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं टळतुं जाय छे.
आत्माने जोवाय छे ने त्यां भोक्तापणुं लांबो काळ रह्या करे एम बनतुं नथी. आखा आत्माने ज जोतां एकला
भोक्तापणाने ज जे देखे छे ते तो हर्ष–शोकनो भोक्ता ज थईने संसारनी चार गतिमां रखडे छे, तेने भोक्तानय
होतो नथी.