Atmadharma magazine - Ank 143
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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तो तीव्र मूढता सेवे छे, कर्मथी जरापण खसीने आत्मानी सामे जोवानो तेने अवकाश नथी. अगीयारमा
गुणस्थानेथी जीव पाछो नीचेना गुणस्थाने आवे छे, ते पोतानी ज पर्यायना तेवा धर्मने लीधे आवे छे, जड कर्मने
लीधे नहि. कर्म वगेरे परनी ओथ लईने जे भोक्तापणुं माने छे ते तो अज्ञानी छे. हुं शुद्धचिदानंदमूर्ति अनंत धर्मनो
पिंड छुं–एम स्वद्रव्यनी सामे जोईने तेनी ओथे ज्ञानी पोताना भोक्ताधर्मने पण जाणे छे, ने एवा ज्ञानीने
भोक्तापणुं (–हर्ष–शोकनुं वेदन) बहु ओछुं होय छे. धर्मी जाणे छे के मारी पर्यायमां ज हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं छे
ते परने लीधे नथी पण मारी पर्यायमां तेवो भोक्ताधर्म छे, हुं ते भोक्ताधर्म जेटलो ज नथी पण अनंतधर्मनो
चैतन्यपिंड छुं; आम द्रव्यने जोनार धर्मी साक्षी रहीने अल्पकाळमां भोक्तापणुं टाळीने वीतराग थशे.
कोई पण नयथी आत्माने जाणनार स्वसन्मुख जुए छे. अने तो ज तेनो नय साचो छे. नय ते सम्यक्
श्रुतज्ञाननुं पडखुं छे, ते साधकने ज होय छे. नयज्ञानथी आत्माना धर्मने जाणनार कोनी सामे जुए छे?–कर्मनी
सामे, के आत्मानी सामे? बधा नयो आत्मानी ज सामे जोईने ते ते धर्मने कबूले छे; परनी सामे जोईने आत्माना
धर्मनी यथार्थ कबुलात थई शकती नथी. अहीं भोक्तानय आत्माना भोक्ताधर्मने कबूले छे, ते कोनी सामे जोईने
कबूले छे? आत्मानी सामे जोईने आत्माना भोक्ताधर्मने जाणनार साधक जीव, स्वभावना अवलंबने ते
भोक्तापणुं टाळीने अल्पकाळमां परमानंदनो भोगवटो प्रगट करीने सिद्ध परमात्मा थई जशे. आवुं आ
भोक्तानयनुं परमार्थ फळ छे.
–अहीं ४० मा भोक्तृनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं.
[४१] अभोक्तृनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य अभोक्तृनये सुख–दुःखादिने भोगवनार नथी पण केवळ साक्षी ज छे. हितकारी–अहितकारी
अन्ने खानार रोगीने जोनार वैद्यनी माफक. जेम रोगी सुख–दुःखने भोगवे छे पण वैद्य तो तेनो साक्षी ज छे, तेम
आत्मानी पर्यायमां हर्ष–शोकरूपी जे रोग छे तेनो ज्ञानी भोक्ता नथी पण साक्षी ज छे. आवा साक्षीधर्मथी आत्माने
लक्षमां लेवो तेनुं नाम अभोक्तृनय छे.
भोक्तापणुं तेम ज अभोक्तापणुं बंने धर्मो आत्मामां एक साथे ज छे. शुद्धचैतन्यमूर्ति आत्मा अनंत
धर्मोनो धरनार छे, ते भोक्तानये हर्ष–शोकनो भोक्ता पण छे, ने ते ज वखते अभोक्तानये तेनो साक्षी पण छे.
शरीरादिक परवस्तुनो भोक्ता तो भोक्तानये पण नथी; भोक्तानये हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं छे, अने अभोक्तानये
तो ते हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं पण आत्माने नथी, आत्मा साक्षीस्वरूप छे. ज्ञाताभावथी जुदां जे रागादि विकारी
परिणामो छे तेना भोगवटाथी रहित आत्मा छे–एवी अभोक्तृत्वशक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे, तेनुं वर्णन
समयसारना परिशिष्टमां वर्णवेली ४७ शक्तिओमां कर्युं छे. आत्माना आवा अभोक्तास्वभावनी प्रतीत करतां,
साधकने पर्यायमां हवे शोकनो अल्प भोगवटो होवा छतां तेना साक्षीपणानुं परिणमन वधतुं जाय छे. एक आत्मा
भोक्ताधर्मवाळो ने बीजो आत्मा अभोक्ताधर्मवाळो–एम नथी. तेम ज एक आत्मामां कोइकवार भोक्ताधर्म ने
कोइक वार अभोक्ताधर्म एवुं भिन्नपणुं पण नथी, एक आत्मामां बंने धर्मो एक साथे छे. (आ साधकनी वात छे,
एटले साधकने भोक्तापणानी साथे अभोक्तापणुं वर्ते छे एम समजवुं) पर्यायमां हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं, अने ते
ज वखते तेनुं अभोक्तापणुं, एम बंने धर्मोथी आत्मद्रव्यने ओळखे तो एकला हर्ष–शोकना वेदनमां न अटकतां
ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने हर्षशोकनो साक्षी थई जाय, ने हर्ष–शोकथी पार एवा चैतन्यस्वभावना आनंदनुं
वेदन प्रगटे आनुं नाम धर्म छे.
भोक्तृनयथी आत्माने हर्ष–शोकनो भोक्ता कह्यो तेनुं परिणाम (तात्पर्य) पण द्रव्यस्वभावनी सन्मुख
थईने जाणनार–देखनार रहेवानुं छे, भोक्तानयनुं परिणाम कांई हर्ष–शोकना भोगवटामां ज अटकी जवुं ते नथी.
केमके भोक्तृनय वखते पण आत्मामां कांई एकलो भोक्ताधर्म ज नथी, ते ज वखते अभोक्ताधर्म पण आत्मामां
छे. आत्माना अभोक्ताधर्मने जाणनार अल्प हर्ष–शोकादिनो पण जाणनार रहीने अभोक्ता रहे छे, हर्ष–शोकना
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आत्मधर्मः १४३