तारो स्वभाव ज्ञाताद्रष्टा साक्षी स्वरूप शुद्ध चैतन्यमात्र छे ते तने भासशे, ने तेना अवलंबने ज तने सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप धर्म थशे.
पोतानुं अस्तित्व मानी लीधुं, तेथी शरीरना लक्षे एकला हर्ष शोकना भोगवटामां ज ते लीन थई जाय छे, पण
साक्षीपणे रहेतो नथी. हर्ष–शोकना वेदन वखतेय आत्मामां तेना साक्षीपणारूप अभोक्ताधर्म छे, भोक्तापणानी
क्षणे ज अभोक्तास्वभाव विद्यमान छे,–एम जे जाणे तेने साधकपणुं थया विना रहे नहि; तेने पर्यायमां पण अंशे
साक्षीपणुं–अभोक्तापणुं वर्ते छे.
तेणे अनेकान्तरूप वस्तुने जाणी नथी, पण एकांतरूप वस्तु मानी छे, ते मिथ्यात्व छे. अने जे परने कारणे आत्मामां
हर्ष–शोक थवानुं माने छे अथवा तो आत्मा परने भोगवे एम माने छे ते तो महा मिथ्यात्व छे.
एकांत हर्ष–शोकरूप ज थई गयो. माटे, (१) परने कारणे आत्मानो हर्ष–शोकनो भोगवटो नथी, अने (२) हर्ष–
शोकना भोगवटा वखते तेटलो ज आत्मा नथी. आत्मा एक समयमां अनंत धर्मनो पिंड छे, तेना आश्रये, साधकने
हर्ष–शोक वखतेय ते हर्ष शोकरहित साक्षीपणुं वर्ते छे.
समजीने भवभ्रमणथी मारो छूटकारो थाय एवी रीत बतावो....आत्मानुं वास्तविक स्वरूप मने समजावो.
थया विना रहे नहि. आत्माना धर्मो वडे आत्माने ओळखवानी आ वात छे. आत्माना धर्मोथी आत्माने
ओळखीने तेनी रुचि अने एकाग्रता करवी ते आत्मानी आराधनानो राह छे, अने ते ज अनादिना विराधकपणाना
नाशनो उपाय छे.
चैतन्यवस्तुने ओळखीने जेने प्रमाणज्ञान थयुं छे तेने ज भोक्तानय तथा अभोक्तानय होय छे. अज्ञानीने नय
होता नथी; अने जेओ आत्माने पूर्णपणे साधीने केवळज्ञान–परमात्मदशा पामी गया छे तेमने पण नय होता
नथी, तेमने हवे कांई साधवानुं बाकी रह्युं नथी, तेओ तो हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं टाळीने सर्वथा अभोक्ता
साक्षीस्वरूप ज थई गया छे. अने अज्ञानी एकांत भोक्तापणामां ज अटकयो छे. साधकने अंशे अभोक्तापणुं तेम
ज भोक्तापणुं उभुं छे, तेथी ते प्रमाणपूर्वकना नयवडे तेनुं ज्ञान करे छे ने शुद्ध आत्माने साधे छे. ते एकला हर्ष–
शोकना वेदनारी मुख्यता थवा देतो नथी पण आखी चैतन्यवस्तुनी सन्मुख थईने तेनो साक्षी रहे छे. ने ते हर्ष–
शोकना वेदनने टाळीने अभोक्तापणुं वधारतो जाय छे.