Atmadharma magazine - Ank 143
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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भोगवटामां ते एकाकार थतो नथी. हे भाई! आवा धर्मोथी तुं तारा आत्मद्रव्यने जो. आत्मानी सामे लक्ष करतां
तारो स्वभाव ज्ञाताद्रष्टा साक्षी स्वरूप शुद्ध चैतन्यमात्र छे ते तने भासशे, ने तेना अवलंबने ज तने सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप धर्म थशे.
जेणे शरीरने धर्मनुं साधन मान्युं छे तेने शरीर पुष्ट थतां हर्ष अने शरीरमां रोगादि थतां शोक थाय छे, ने
ते हर्ष शोकना वेदनमां ज लीन थईने आत्माने चूकी जाय छे. शरीरथी धर्म मान्यो एटले शरीरना अस्तित्वमां ज
पोतानुं अस्तित्व मानी लीधुं, तेथी शरीरना लक्षे एकला हर्ष शोकना भोगवटामां ज ते लीन थई जाय छे, पण
साक्षीपणे रहेतो नथी. हर्ष–शोकना वेदन वखतेय आत्मामां तेना साक्षीपणारूप अभोक्ताधर्म छे, भोक्तापणानी
क्षणे ज अभोक्तास्वभाव विद्यमान छे,–एम जे जाणे तेने साधकपणुं थया विना रहे नहि; तेने पर्यायमां पण अंशे
साक्षीपणुं–अभोक्तापणुं वर्ते छे.
हर्ष–शोकना वेदन वखते ज मारामां साक्षीपणुं छे–एम जाणे तो ज अनेकांतरूप वस्तुने ओळखी छे; हर्ष–
शोक वखते तेटलो ज आत्माने मानी ल्ये ने ते ज वखते आत्मामां बीजो अभोक्तास्वभाव छे तेने न ओळखे तो
तेणे अनेकान्तरूप वस्तुने जाणी नथी, पण एकांतरूप वस्तु मानी छे, ते मिथ्यात्व छे. अने जे परने कारणे आत्मामां
हर्ष–शोक थवानुं माने छे अथवा तो आत्मा परने भोगवे एम माने छे ते तो महा मिथ्यात्व छे.
(१) शरीरनां रोगादिने कारणे आत्मा हर्ष–शोकने भोगवे एम होय तो भोक्ताधर्म आत्मानो न रह्यो पण
परनो थई गयो. अने (२) हर्ष–शोक वखते जो आत्मा तेटलो ज होय तो आत्मा अनेकान्तरूप न रह्यो पण
एकांत हर्ष–शोकरूप ज थई गयो. माटे, (१) परने कारणे आत्मानो हर्ष–शोकनो भोगवटो नथी, अने (२) हर्ष–
शोकना भोगवटा वखते तेटलो ज आत्मा नथी. आत्मा एक समयमां अनंत धर्मनो पिंड छे, तेना आश्रये, साधकने
हर्ष–शोक वखतेय ते हर्ष शोकरहित साक्षीपणुं वर्ते छे.
जुओ, आ आत्मानी प्राप्तिनो पंथ! आत्मा शुं चीज छे तेनी ओळखाण वगर तेनी प्राप्ति न थाय; तेथी
आत्मानी ओळखाण माटे तेनुं आ वर्णन चाले छे.
भवभ्रमणथी थाकेलो जिज्ञासु शिष्य आत्मानी समजण करवा माटे श्रीगुरु पासे आवीने पूछे छे केः
आत्माना भान विना, हे प्रभो! अनंत अवतारमां रखडी रखडीने हवे तो हुं थाक्यो, नाथ! हवे आ आत्माने
समजीने भवभ्रमणथी मारो छूटकारो थाय एवी रीत बतावो....आत्मानुं वास्तविक स्वरूप मने समजावो.
श्री गुरु कहे छे के भाई! तुं आत्मानो गरजवान थईने पूछवा आव्यो छे तो अमे तने आत्मानुं स्वरूप
बतावीए छीए; अमे जे कहीए छीए ते धीरो थईने तुं सांभळ. आ वातनी हा पाडीने रुचि करतां तेमां परिणमन
थया विना रहे नहि. आत्माना धर्मो वडे आत्माने ओळखवानी आ वात छे. आत्माना धर्मोथी आत्माने
ओळखीने तेनी रुचि अने एकाग्रता करवी ते आत्मानी आराधनानो राह छे, अने ते ज अनादिना विराधकपणाना
नाशनो उपाय छे.
जे जीव हजी साधक छे, प्रमाण–नय वडे आत्माने साधे छे एवा साधकने पर्यायमां भोक्तापणुं तेम ज
अभोक्तापणुं बंने धर्मनुं वेदन एक साथे छे. भोक्तापणुं, अभोक्तापणुं इत्यादि अनंतधर्मोना आधाररूप
चैतन्यवस्तुने ओळखीने जेने प्रमाणज्ञान थयुं छे तेने ज भोक्तानय तथा अभोक्तानय होय छे. अज्ञानीने नय
होता नथी; अने जेओ आत्माने पूर्णपणे साधीने केवळज्ञान–परमात्मदशा पामी गया छे तेमने पण नय होता
नथी, तेमने हवे कांई साधवानुं बाकी रह्युं नथी, तेओ तो हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं टाळीने सर्वथा अभोक्ता
साक्षीस्वरूप ज थई गया छे. अने अज्ञानी एकांत भोक्तापणामां ज अटकयो छे. साधकने अंशे अभोक्तापणुं तेम
ज भोक्तापणुं उभुं छे, तेथी ते प्रमाणपूर्वकना नयवडे तेनुं ज्ञान करे छे ने शुद्ध आत्माने साधे छे. ते एकला हर्ष–
शोकना वेदनारी मुख्यता थवा देतो नथी पण आखी चैतन्यवस्तुनी सन्मुख थईने तेनो साक्षी रहे छे. ने ते हर्ष–
शोकना वेदनने टाळीने अभोक्तापणुं वधारतो जाय छे.
श्रेणीकराजा क्षायिकसम्यग्द्रष्टि छे, तेओ अत्यारे नरकमां छे, त्यां तेमने शोकनुं वेदन पण थाय छे, छतां ते ज
वखते अंतरमां भान छे के मारो ज्ञानानंदस्वभाव छे ते हर्ष–शोकनो भोक्ता नथी; आवा भानने लीधे शोक
प्रथम भादरवोः २४८१ ः २६३ः