अने ते ज वखते तेनुं साक्षीपणुं–ए बंने जो भेगां न होय तो कां केवळी होय ने कां अज्ञानी होय. केवळीभगवानने
हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं सर्वथा टळीने एकलुं साक्षीपणुं ज रह्युं छे, अज्ञानीने एकलुं हर्षशोकनुं भोक्तापणुं वर्ते छे ने
साक्षीपणुं नथी. अज्ञानीना आत्मामां पण अभोक्तारूप साक्षीस्वभाव तो छे पण अज्ञानीने तेनी खबर नथी तेथी
तेने पर्यायमां साक्षीपणानुं परिणमन थतुं नथी. साधकजीव अभोक्तास्वभावने जाणतो थको हर्ष–शोक वखते य
तेना साक्षीपणे परिणमे छे.
१७२ मी गाथामां कहेला निश्चय–व्यवहारनुं पण खास स्पष्टीकरण करवामां आव्युं छे.
जीवोने सरखुं छे.
उत्तरः– समकितीना सुख करतां केवळी भगवाननुं सुख अनंतगणुं अधिक छे.
(३) प्रश्नः– पुण्यना फळमां पैसावाळाने जे सुख छे तेना करतां समकितीनुं सुख केटला गणुं?
उत्तरः– समकितीनुं जे सुख छे ते तो आत्माना स्वभावनुं अतीन्द्रिय सुख छे, ने पैसावाळानुं जे सुख छे ते
ईंद्रियजन्य सुखनी साथे समकितीना अतीन्द्रिय सुखने कोई रीते सरखावी न शकाय. पैसाना सुख करतां समकितीनुं
सुख अनंतगणुं छे–एम पण कही न शकाय. केमके बंनेनी जात ज जुदी छे.
उत्तरः– हा; केमके आत्माना स्वरूपमां तेमने घणी वधारे एकाग्रता छे, तेथी ते भरतचक्रवर्ती करतां पण
(सम्यग्दर्शन पूरती) होवाथी ते ओछा सुखी छे. अरे, समकिती देडकुं अंतरमां एकाग्र थईने पांचमुं गुणस्थान
प्रगट करे तो ते पण चोथा गुणस्थानवर्ती चक्रवर्ती करतां वधारे सुखी छे. आ रीते आत्मस्वरूपमां स्थिरता अनुसार
सुख छे, बाह्यसंयोगना प्रमाणमां सुख नथी; केम के सुख तो आत्मानो स्वभाव छे, बहारमां सुख नथी.–‘हे जीव!
अंतरनुं सुख अंतरनी स्थितिमां छे.’
उत्तरः– एनो अर्थ एम समजवो के बहारनो प्रतिकूळ संयोग ते खरेखर दुःखनुं कारण नथी, पण अंदरनो
जातना बाह्यसंयोगने लीधे दुःखी नथी, पण ते
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