Atmadharma magazine - Ank 143
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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वखते पण आत्मानी अतीन्द्रिय शांतिना अंशनुं वेदन पण भेगुं ज वर्ते छे.–आवी साधकनी दशा छे. भोक्तापणुं
अने ते ज वखते तेनुं साक्षीपणुं–ए बंने जो भेगां न होय तो कां केवळी होय ने कां अज्ञानी होय. केवळीभगवानने
हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं सर्वथा टळीने एकलुं साक्षीपणुं ज रह्युं छे, अज्ञानीने एकलुं हर्षशोकनुं भोक्तापणुं वर्ते छे ने
साक्षीपणुं नथी. अज्ञानीना आत्मामां पण अभोक्तारूप साक्षीस्वभाव तो छे पण अज्ञानीने तेनी खबर नथी तेथी
तेने पर्यायमां साक्षीपणानुं परिणमन थतुं नथी. साधकजीव अभोक्तास्वभावने जाणतो थको हर्ष–शोक वखते य
तेना साक्षीपणे परिणमे छे.
–अहीं ४१ मा अभोक्तृनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं
आ लेखमाळाना हवे पछीना लेखमां ‘क्रियानय’ अने ‘ज्ञाननय’ ना प्रवचनो प्रसिद्ध थशे. क्रियानय अने
ज्ञानमय बाबतना पू. गुरुदेवना आ प्रवचनो जिज्ञासुओने खास उपयोगी छे; तेनी साथे साथे पंचास्तिकायनी
१७२ मी गाथामां कहेला निश्चय–व्यवहारनुं पण खास स्पष्टीकरण करवामां आव्युं छे.
(रात्रिचर्चामांथी)
(१) प्रश्नः– स्वर्गमां, नरकमां, तिर्यंचमां तेम ज मनुष्यमां ए चारे ठेकाणे सम्यग्द्रष्टि होय छे, ते चारेमांथी
वधारे सुखी कोण?
उत्तरः– सम्यग्द्रष्टिपणानुं सुख तो चारेयने सरखुं ज छे. मनुष्यपणामां आत्मामां विशेष एकाग्रता वडे
चारित्रदशा प्रगट करे तो तेने ते चारित्रदशानुं विशेष सुख होय छे. परंतु सम्यग्दर्शननुं सुख तो चारे गतिना
जीवोने सरखुं छे.
(२) प्रश्नः– समकितीना सुख करतां केवळी भगवाननुं सुख केटलुं वधारे?
उत्तरः– समकितीना सुख करतां केवळी भगवाननुं सुख अनंतगणुं अधिक छे.
(३) प्रश्नः– पुण्यना फळमां पैसावाळाने जे सुख छे तेना करतां समकितीनुं सुख केटला गणुं?
उत्तरः– समकितीनुं जे सुख छे ते तो आत्माना स्वभावनुं अतीन्द्रिय सुख छे, ने पैसावाळानुं जे सुख छे ते
तो ईंद्रियजन्य सुख छे एटले के खरेखर ते सुख नथी पण सुखनी मात्र कल्पना छे; खरेखर तो ते दुःख छे; तेथी ते
ईंद्रियजन्य सुखनी साथे समकितीना अतीन्द्रिय सुखने कोई रीते सरखावी न शकाय. पैसाना सुख करतां समकितीनुं
सुख अनंतगणुं छे–एम पण कही न शकाय. केमके बंनेनी जात ज जुदी छे.
(४) प्रश्नः– साचा भावलिंगी मुनि होय, ते भरतचक्रवर्ती करतां पण वधारे सुखी छे?
उत्तरः– हा; केमके आत्माना स्वरूपमां तेमने घणी वधारे एकाग्रता छे, तेथी ते भरतचक्रवर्ती करतां पण
घणा वधारे सुखी छे. भरतचक्रवर्तीने छ खंडनी राजविभूतिनो संयोग होवा छतां, अंर्तस्वरूपमां स्थिरता ओछी
(सम्यग्दर्शन पूरती) होवाथी ते ओछा सुखी छे. अरे, समकिती देडकुं अंतरमां एकाग्र थईने पांचमुं गुणस्थान
प्रगट करे तो ते पण चोथा गुणस्थानवर्ती चक्रवर्ती करतां वधारे सुखी छे. आ रीते आत्मस्वरूपमां स्थिरता अनुसार
सुख छे, बाह्यसंयोगना प्रमाणमां सुख नथी; केम के सुख तो आत्मानो स्वभाव छे, बहारमां सुख नथी.–‘हे जीव!
अंतरनुं सुख अंतरनी स्थितिमां छे.’
(प) प्रश्नः– सातमी नरकनी प्रतिकूळता सहन थात, पण मोह सहन थतो नथी,–एनो शुं अर्थ?
उत्तरः– एनो अर्थ एम समजवो के बहारनो प्रतिकूळ संयोग ते खरेखर दुःखनुं कारण नथी, पण अंदरनो
मोहभाव ते ज दुःखरूप छे. ‘जेटलो मोह तेटलुं दुःख’ पण संयोगनुं दुःख नथी. सातमी नरकनो जीव पण कांई ते
जातना बाह्यसंयोगने लीधे दुःखी नथी, पण ते
ः २६४ः
आत्मधर्मः १४३