आ तो साची समजणनां मंत्रो कहेवाय छे...आ धर्मना मंत्रो छे...आ समजे–आमां रस लागे–आनी प्रीति
थाय ने अंदर ऊतरी जाय त्यां स्वरूपनो परम आनंद प्रगटे ने अनादिनुं मिथ्यात्वनुं झेर ऊतरी जाय, एवां आ
अलौकिक मंत्रो छे. अहो, जंगलमां वसनारा ने आत्माना आनंदमां मशगुल रहेनारा एवा पद्मप्रभु मुनिराजनुं
मन आ परमागमना सारनी पुष्ट रुचिथी फरी फरीने अत्यंत प्रेरित थतां आ टीका रचाई गई छे....मुनिराजना
श्रीमुखेथी परमागमना अमृत झर्या छे.
‘कारणस्वभावज्ञान’ ते आत्माना उपयोग–लक्षणनो एक प्रकार छे; ते त्रिकाळ निरुपाधिक परिणाम छे.
निगोदथी मांडीने सिद्ध सुधीना दरेक जीवमां कर्मनी अपेक्षा वगरनो एकरूप एवो ने एवो आ उपयोग वर्ते छे, एक
समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने प्रत्यक्ष जाणनारुं कार्य जे केवळज्ञान, तेनुं आ कारण छे; आ कारणस्वभावज्ञान ते
स्वरूप–प्रत्यक्षउपयोग छे, तेमां कदी परोक्षपणुं नथी, अधूरापणुं नथी. दरेक समये परिपूर्ण, धु्रवकारणरूप, स्वरूप–
प्रत्यक्षउपयोग ते जीवनो सहज स्वभाव छे, ते केवळज्ञाननुं कारण छे. आवा कारणनी जे प्रतीति करे तेने
केवळज्ञाननी शंका न रहे. आ अपूर्व वात छे.
जुओ, एक बीजी वात! –विशेष हवे पछी....
“आत्मा कोण छे ने कई रीते पमाय?”
* (२१) *
श्री प्रवचनसारना परिशिष्टमां आचार्यदेवे ४७ नयोथी
आत्मद्रव्यनुं वर्णन कर्युं छे तेना उपर पू. गुरुदेवना विशिष्ट–अपूर्व
प्रवचनोनो सार.
(अंक १४२ थी चालु)
जिज्ञासु शिष्य पूछे के ‘हे प्रभो! अनादिथी नहि जाणेला एवा आत्मानुं
स्वरूप जाणीने हुं तेनी प्राप्ति करुं, अने हवे मारा संसार–परिभ्रमणनो अंत
आवीने मारी मुक्ति थाय एवुं स्वरूप मने समजावो.’
आ रीते जे आत्मानो ज अर्थी थईने समजवा मांगे छे एवा शिष्यने
आचार्यभगवान आत्मानुं स्वरूप अने तेनी प्राप्तिनो उपाय बतावे छे, तेनुं आ
वर्णन चाले छे.
(४०) भोक्तृनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य भोक्तृनये सुख दुःखादिनुं भोगवनार छे,–हितकारी–अहितकारी अन्नने खानार रोगीनी माफक.
जेमने भावलिंगी मुनिदशा वर्तती हती अने अंतरमां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो भोगवटो करता
ः २प८ः आत्मधर्मः १४३