ज्ञान ने आनंद आत्मामांज व्यापीने रहेलां छे;–आम साधकने पोताना आनंदना स्वसंवेदनपूर्वक सर्वज्ञनो निर्णय
छे. जे जीव आत्माना ज्ञान–आनंदस्वभावनो आवो निर्णय करे तेने पोतामां स्वभावना आश्रये अतीन्द्रिय
आनंदनुं स्वसंवेदन थया विना रहे नहि, ने तेने विकारथी पण भेद पडी जाय. साधकदशामां अल्प विकार होय छे,
ते विकारनुं अने ज्ञानआनंदनुं एक ज क्षेत्र होवा छतां ज्ञानीने पोताना वेदनमां बंनेनी भिन्नता थई गई छे,
क्षेत्रथी भिन्नता न थाय, पण वेदनना स्वादमां जुदा पडी गया छे. अंतरना स्वभावमां जोतां मने मारा आनंदनुं
वेदन थाय छे माटे मारो आत्मा ज मारा ज्ञान–आनंदनो आधार छे; ने अंर्तस्वभावमां जोतां पुण्य पाप वेदाता
नथी माटे मारो आत्मा ते विकारनो आधार नथी,–आम अंतरना स्वसंवेदनपूर्वकनुं भेदज्ञान ज्ञानीने वर्ते छे.
थाय छे त्यां ज मारुं ज्ञान छे. आनंद अने ज्ञान स्वभावथी एकाकार मारो आत्मा छे.
ज्यां आत्मा त्यां ज्ञान;
छे....अतीन्द्रिय आनंदमां झूलतां संतोनी वाणीमां पण अतीन्द्रिय–आनंद नीतरी रह्यो छे.
गया छे एवा केवळी भगवंतोने देहसंबंधी कंई पण सुख के दुःख होतुं नथी. शरीरमां क्षुधा लागे ने आहार करे ते
बंने इन्द्रियजनित दुःख–सुख छे, परंतु भगवाननो आत्मा तो इन्द्रियोथी पार अतीन्द्रि ज्ञान–आनंदस्वभावे
परिणमी गयो छे, तेथी भगवानने क्षुधा के आहार होता नथी. आम होवा छतां केवळी भगवानने पण क्षुधा अने
आहारादि होवानुं जे माने छे तेने भगवानना अतीन्द्रियज्ञान ने आनंदनी खबर नथी, एटले आत्माना अतीन्द्रिय
स्वभावनी तेने रुचि नथी पण ते विषयोनो ज अर्थी छे, इन्द्रिय विषयोथी पार आत्माना अतीन्द्रियसुखनी तेने
गंध पण नथी; अने केवळी भगवाननो पण ते अवर्णवाद करे छे; केवळी भगवाननो अवर्णवाद ते मिथ्यात्वना
आस्रवनुं कारण छे. अहो! आत्मानो स्वभाव ज अतीन्द्रिय ज्ञान अने अतीन्द्रिय आनंदमय छे, एनी जो प्रतीत
थाय तो, जेमने ते अतीन्द्रिय स्वभाव पूरो खीली गयो छे एवा केवळी भगवानने आहार के क्षुधा होवानुं
प्रथम भादरवोः २४८१