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* केवळज्ञानरूपी कार्यना कारणभूत कारणस्वभावज्ञानउपयोग *
(नियमसार गा. १० उपरनां प्रवचनो)
अहो! जंगलमां वसनारा....ने आत्माना आनंदमां मशगुल रहेनारा
वीतरागी मुनिराजना श्रीमुखेथी परमागम रूपी अमृत झर्या छे. तेमां आत्माना
स्वभावनुं वर्णन करतां कहे छे के हे भाई! तारा धर्मनुं धु्रवकारण तो तारामां
सदाय विद्यमान छे ज, पण तुं तेने कारण बनावतो नथी. आ कारणमां अंतर्मुख
थईने कार्य प्रगट करतां खबर पडे छे के अहो! आ मारा कार्यनुं कारण!–आवुं
भान थतां कारणनुं कारणपणुं सफळ थाय छे.
अतंर्मुख थईने अपूर्व कार्य प्रगट कर्युं त्यारे कारणनुं भान नवुं प्रगटयुं,
अने खबर पडी के ओहो! मारामां आवुं कारण तो पहेलां पण हतुं पण मने तेनुं
भान न हतुं, तेथी कार्य न प्रगटयुं. हवे कारणना महिमानी खबर पडी, कारणनुं
भान थतां कार्य प्रगटयुं, ने कारण साथे कार्यनी अपूर्व संधि थई. अहो!
मुनिवरोए कारण अने कार्यने साथे ने साथे राखीने अद्भुत अमृत रेडयां छे.
आ समजीने अंतर्मुख थईने जे जीव निज स्वभावमां ऊंडो....ऊंडो....
ऊतरी जाय छे तेने मोक्षदशा खीली जाय छे...ते सादि अनंत मंगळरूप छे.
(वीर सं. २४८१ पोष सुद नोम)
प्रथम भादरवोः २४८१ ः २प३ः