Atmadharma magazine - Ank 143
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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स्वभाव अने विभाव एवा बे प्रकारना ज्ञानोपयोगमांथी, स्वभावज्ञानोपयोगने कारण अने कार्य एम बे
प्रकारनो कहेशे, तेमां खास वात आवशे. स्वभावज्ञान–उपयोगमां कारणस्वभावज्ञानउपयोग ने कार्यस्वभावज्ञान–
उपयोग एवा बे प्रकार छे; ते बे भेद बताववानो ए हेतु छे के कारणना अवलंबने कार्य थाय छे.
अहीं पहेलां स्वभावज्ञानउपयोगनुं वर्णन करे छे, पछी तेना कारण अने कार्य एवा बे भेद पाडीने तेनुं
वर्णन करशे.
केवो छे आत्मानो स्वभावज्ञानोपयोग? स्वभावज्ञान–उपयोग अमूर्त छे, अव्याबाध छे, अतीन्द्रिय छे,
अविनाशी छे. स्वभावज्ञानउपयोगनी आ व्याख्या कारण अने कार्य बंनेने लागु पडे छे.
स्वभावज्ञान–उपयोग पण कारणरूप अने कार्यरूप एम बे प्रकारनो छे. चैतन्यस्वभावने अनुसरीने
वर्तनारा जे स्वभावज्ञानउपयोगरूप परिणाम ते कारण अने कार्य एवा बे भेदवाळा छे.
(१) कारणस्वभावज्ञानउपयोग परिणाम
(२) कार्यस्वभावज्ञानउपयोग परिणाम
(विभावज्ञान उपयोगना भेद हवे पछी कहेशे.)
कार्य स्वभावज्ञान उपयोग ते तो परिपूर्ण निर्मळ एवुं केवळज्ञान छे. अने ते केवळज्ञानना कारणरूप
परमपारिणामिकभावे रहेलुं त्रिकाळ निरुपाधिरूप सहजज्ञान छे ते कारणस्वभावज्ञानउपयोग छे. आ बन्ने प्रकारना
उपयोग अमूर्त–अव्याबाध–अतीन्द्रिय अने अविनाशी छे. तेमांथी कारणस्वभावज्ञानउपयोग तो सदाय–अनादि
अनंत अमूर्त–अव्याबाध–अतीन्द्रिय ने अविनाशी स्वभाववाळो छे, ने कार्यस्वभावज्ञानउपयोग पण प्रगटया पछी
तेवा ज स्वभाववाळो छे. कारणरूप स्वभावज्ञानउपयोग तो सदाय परम पारिणामिकभावमां स्थित छे ज, ते कांई
नवो थतो नथी. तेमांथी केवळज्ञान नवुं प्रगटे छे, तेने कार्यस्वभावज्ञानउपयोग कहे छे. आ कारणरूप के कार्यरूप
जेटला उपयोग कहेवाय छे ते बधा परिणामरूप छे, केमके चैतन्यने अनुसरीने वर्तता परिणाम ते उपयोग छे, ने
तेना प्रकारोनुं आ वर्णन चाले छे. कारणस्वभावज्ञान उपयोग बधाय जीवोमां अत्यारे पण वर्ती रह्यो छे, तेनी वात
खास समजवा जेवी छे.
आत्माना चैतन्यस्वभावने अनुसरीने वर्तता ज्ञानउपयोगना स्वभावपरिणाम एक ‘कारणस्वभावरूप’
छे ने बीजा ‘कार्यस्वभावरूप’ छे. तेमां कारणस्वभावरूपज्ञानउपयोग अनादि अनंत छे. ने कार्यस्वभावज्ञान
उपयोग सादिअनंत छे. कारणस्वभावज्ञानने ‘परमपारिणामिकभावमां स्थित’ कह्युं छे, एटले शुं?
परमपारिणामिकभाव तो त्रिकाळी द्रव्य छे ने आ कारणस्वभावज्ञान उपयोग ते परमपारिणामिकभावमां स्थित छे.
‘परमपारिणामिकभाव’ ते द्रव्य छे, ‘तेमां स्थित’ ते पर्याय छे;–कई पर्याय? उत्पाद–व्ययरूप पर्याय नहि,–संसार
मोक्षरूप पर्याय नहि, पण त्रिकाळ स्वभावमां स्थितपणे आ पर्याय वर्ते छे. ते निरपेक्ष छे, कर्मनी उपाधिरहित छे,
सदशपरिणमनरूप छे, सामान्य पारिणामिकभावनी विशेषपरिणतिरूप छे, वर्तमान वर्ते छे, ते पूज्य छे–महिमावंत
छे–आश्रय करवा योग्य छे. आ वर्तमान धु्रवकारणरूप छे, ते धु्रवकारणना आश्रये पूरुं कार्य प्रगटी जाय छे, ने पछी
पण धु्रवकारणना आधारे ज पूरुं कार्य टके छे. अहो! आवुं सद्रशरूप धु्रवकारण परिपूर्णस्वरूपे आत्मामां वर्तमान
एकरूप वर्ते छे. आ कारणने पकडतां निर्मळ कार्य थई जाय छे.
केवळज्ञानरूप स्वभावकार्य तो ज्यारे प्रगटे त्यारे वर्तमान छे, परंतु ते केवळज्ञान प्रगटया पहेलां तेना
स्वभावकारणरूप एवो आ सहज स्वभाविकज्ञानउपयोग, परमपारिणामिकभावमां स्थितपणे सदा वर्तमान–
वर्तमान बिराजी रह्यो छे. केवळज्ञानरूप कार्य तो पुरुषार्थथी नवुं प्रगटे छे, ज्यारे आ कारणस्वभावज्ञानउपयोग तो
आत्मा साथे अनादिअनंत वर्ते छे, ते कांई नवो नथी प्रगटतो तेनुं भान नवुं प्रगटे छे.
समयसारनी बीजी गाथामां ‘जीव चरित दर्शन ज्ञान–स्थित.....’ एम कह्युं छे तेमां तो दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनी नवी पर्याय प्रगटी तेनी (एटले के मोक्षमार्गनी) वात छे, अहीं ‘परमपारिणामिकभावमां स्थित’ कह्युं
छे ते तो त्रिकाळी उपयोगपरिणतिनी वात छे. छतां आ पण छे तो परिणाम! चैतन्यअनुविधायी परिणामने
उपयोग कह्यो छे ते व्याख्या आमां पण लागु पडे छे, आ उपयोग त्रणे काळे आत्माना चैतन्यस्वभावने अनुसरीने
वर्ते छे; आने ‘परिणति’ कही, छतां वेदन तेनुं नथी, वेदन तो तेना
प्रथम भादरवोः २४८१
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