आश्रये जे नवी पर्याय प्रगटे तेनुं थाय छे.
अहीं ‘उपयोग’ नी ज वात लीधी छे, बीजा गुणोनी वात नथी लीधी, पण तेमांय (सुख, श्रद्धा वगेरे
गुणोमांय) आ उपयोग प्रमाणे समजी लेवुं. कारणशुद्धपरिणतिनी वात उपयोगनी माफक जीवना बधा गुणोमां पण
लागु पडे छे.
जुओ भाई! आ वात बहु झीणी छे, पण एकदम अंतरना स्वभावनी छे; जलदी न समजाय तोपण अंदर
महिमा लावीने ध्यान पूर्वक सांभळवुं. आ कांईक आत्माना महिमानी वात कहेवाय छे एम अंतरथी बहुमान करवुं
ते पण ज्ञाननी निर्मळतानुं कारण छे.
मूळसूत्रमां आचार्य भगवानने ज्ञानोपयोगने स्वभावज्ञान अने विभावज्ञान एम बे प्रकारनो कह्यो छे,
तेमांथी टीकाकारे अद्भुत भावो खोल्यां छे. स्वभावज्ञानउपयोग कह्यो तेमांथी कारण अने कार्य एवा बे प्रकार
काढया.
अहीं हजी स्वभावज्ञान अने विभावज्ञानना भेदो बतावे छे, तेमां प्रत्यक्ष अने परोक्षनी वात पछी कहेशे.
अहीं जेने कारणस्वभावज्ञानउपयोग कह्यो तेने ज आगळ ११–१२ गाथामां ‘स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान’ तरीके
वर्णवशे. त्यां केवळज्ञानने सकलप्रत्यक्ष कहेशे ने सहजज्ञानने स्वरूपप्रत्यक्ष कहेशे.
आत्माना चैतन्यस्वभावने अनुसरीने वर्तनार जे सकळविमळ केवळज्ञानपरिणाम ते
कार्यस्वभावज्ञानउपयोग छे. ते स्वभावकार्यना कारणरूप जे उपयोग छे ते कारणस्वभावज्ञानउपयोग छे, ते पण
आत्माना चैतन्यस्वभावने अनुसरीने वर्तनार सहज परिणाम छे.
कारणस्वभावज्ञानउपयोग त्रिकाळ निरुपाधिरूप छे, ने कार्यस्वभावज्ञानउपयोग प्रगटया पछी सादि–अनंत
निरुपाधि छे.
कारणस्वभावज्ञान परमपारिणामिकभावे रहेलुं छे, ने कार्यस्वभावज्ञान (एटले के केवळज्ञान) क्षायिकभावे
रहेलुं छे.
तेरमा गुणस्थाने परिपूर्ण निर्मळ केवळज्ञान प्रगटे छे ते कार्य छे; ते कार्यनुं कारण कोण? कार्य प्रगटयुं क्यांथी?
कया कारणना अवलंबनथी कार्य प्रगटयुं? ते अहीं ओळखावे छे.
* कोई परद्रव्य आत्माना केवळज्ञानरूपी कार्यनुं कारण नथी; उत्तमसंहननवाळुं शरीर वगेरे निमित्तोमांथी
केवळज्ञान आवतुं नथी.
* शुभ–अशुभ विकारीभावो ते पण केवळज्ञाननुं कारण नथी. शुभ–अशुभ भावो तो केवळज्ञानना बाधक
छे, तेमांथी केवळज्ञान केम आवे?
* साधकदशामां मति–श्रुत वगेरे ज्ञान होय छे, तेने व्यवहारथी केवळज्ञाननुं कारण कहेवाय छे, पण
खरेखर ते अधूरा ज्ञानमांथी केवळज्ञान आवतुं नथी, एटले ते पण खरेखर केवळज्ञाननुं कारण नथी; तेना
आश्रयथी केवळज्ञान थतुं नथी. अधूरी पर्यायमांथी पूरी पर्याय केम आवे? केवळज्ञान ते पूरुं कार्य छे तो तेनुं कारण
पण पूरुं ज होय–ए अहीं बतावे छे.
चैतन्यना परम पारिणामिकभावमां जे सदाय रहेलुं छे, जे त्रिकाळ निरुपाधि छे, सदा परिपूर्ण छे एवुं
कारणस्वभावज्ञान ते ज केवळज्ञाननुं कारण छे, ते कारणना अवलंबने ज पूरुं कार्य प्रगटी जाय छे. आ कारणनो
स्वीकार (श्रद्धा, आश्रय) करतां ज साधनदशा शरू थई जाय छे ने अल्पकाळमां तेना ज अवलंबने पूरुं कार्य प्रगटी
जाय छे.
पूरुं कार्य एटले के कार्यस्वभावज्ञान प्रगटतां विभावज्ञाननो अभाव थई जाय छे पण
कारणस्वभावज्ञाननो अभाव थतो नथी. विभावज्ञानवाळा जीवने पण कारणस्वभावज्ञान तो त्रिकाळ विद्यमान छे,
पण अज्ञानीने तेनुं भान नथी. ज्ञानीने साधकदशामां कारणस्वभावज्ञाननुं भान छे छतां हजी अमुक विभावज्ञान
पण छे. विभावज्ञान अने कारणस्वभावज्ञान बंने एक साथे होय, पण विभावज्ञान अने कार्यस्वभावज्ञान ए
बन्ने एक साथे न होय. कारणस्वभावज्ञान उपयोग तो बधा जीवोने त्रणेकाळे वर्तमान वर्ती रह्यो छे. एक
आत्माने उपयोगना बधाय प्रकारो एक साथे नथी होता.
भाई! तुं जीव छो, ने उपयोग तारुं लक्षण छे. तारा उपयोगनो महिमा तो जो! तारा उपयोगमां केवा केवा
प्रकारो रहेला छे तेनुं आ वर्णन छे. एकेक जीव तत्त्वमां आटली गंभीरता भरी छे.
ः २प६ः आत्मधर्मः १४३