‘सौ भूतमां समता मने,
को साथ वेर मने नहीं’
[श्री नियमसार गा. १०४ उपर पू. गुरुदेवना भाववाही सुंदर प्रवचनोमांथी. आ गाथा उपर त्रण
वखत प्रवचनो थया, ते त्रणे संयुक्त करीने अहीं आपवामां आव्या छे.]
सहज वैराग्य परिणतिवाळा मुनिवरोने मृत्युनो भय नथी. हुं तो
छे?
जुओ आ वीतरागमार्गना मुनिओनी समाधि! आवी दशामां
वर्तता मुनिराज कहे छे के अमे तो साक्षीस्वरूप चैतन्यमूर्ति छीए. अमारा
ज्ञानानंद स्वभाव साथे संबंध जोडीने, जगत साथेनो संबंध अमे तोडी
नांख्यो छे, तेथी अमने कोई आशा नथी पण स्वभावनी समाधि वर्ते छे.
जगतना सर्व जीवोमां अमने समता छे. आत्मामां आवी दशा प्रगटे ते
ज शांति अने शरणरूप छे.
“ अहो! आवा निर्गं्रथ महात्माओना वीतराग मार्गे अमे कयारे
विचरीए? हुं कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतोना पगले विचरीए–एवो
धन्य अवसर कयारे आवे!!”
– पू. गुरुदेव.
* * *
आ नियमसारनी १०४मी गाथा वंचाय छे. अंतर्मुख परम तपोधननी भावशुद्धि केवी होय? अर्थात्
मोक्षमार्गना साधक मुनिवरोने समता तथा समाधि केवी होय ते कहे छे–
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि ।
आसाए वोसरित्तां णं समाहि पडीवज्जए ।। १०४।।
सौ भूतमां ममता मने,
को साथ वेर मने नहीं ;
बीजो भादरवोः २४८१ ः २७३ः