Atmadharma magazine - Ank 143a
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 21

background image
आशा खरेखर छोडीने
प्राप्ति करुं छुं समाधिनी. १०४
सर्व प्राणीओ प्रत्ये जेने समभाव होय ने कोईनी साथे वेरभाव न होय एवा जीवनी दशा केवी होय ते
अहीं बतावे छे. चैतन्यमां एकाग्र थतां आ मारा मित्र के आ मारो शत्रु एवी रागद्वेषरूप परिणति ज जेने थती
नथी एवा जीवने कोईनी प्रत्ये वेर होतुं नथी. परजीवो तो माराथी जुदा छे, ने आ पांच जड ईन्द्रियो पण माराथी
जुदी छे, इन्द्रियो तरफना खंडखंड ज्ञान जेटलो पण हुं नथी. हुं तो अखंड ज्ञायकतत्त्व छुं. आवुं जेने भान थयुं होय
तेने कोई परने शत्रु के मित्र मानीने रागद्वेष थता नथी ने पछी विशेष लीनता थतां परिणितिनो ज अभाव थई
जवाथी कोई प्रत्ये मित्रता के शत्रुतानो भाव होतो नथी, एटले तेने ज खरेखर सर्वे जीवो प्रत्ये समभाव छे;
मुनिवरोने एवो समभाव होय छे.
अहीं मुनिराज कहे छे के अमारो उपयोग तो अमे अतीन्द्रिय आत्मामां जोडयो छे, ने समस्त ईंद्रियोना
व्यापारने अमे छोडयो छे; अतीन्द्रियस्वभावना वेदनमां अमने बीजा धर्मात्माओ के अज्ञानीओ ते बधाय प्रत्ये
समता छे. जुओ आमां बीजा जीवोने खमाववानी वात नथी लीधी, बीजाने खमाववानो विकल्प ते पण राग छे.
अहीं तो कहे छे के अतीन्द्रिय चैतन्य तरफना उपयोगने लीधे अमने समता छे, ने समता होवाथी कोई प्रत्ये
वेरभाव नथी, एकनो आदर अने बीजानो अनादर एवो राग–द्वेषनो भाव ज मने थतो नथी. जुओ आवा
विकल्पनी वात नथी, पण मुनिओने अंतरमां आवी सहज परिणति थई गई होय छे.
‘चैतन्यने साधी रहेला धर्मात्माओ अमारा साधर्मी छे–माटे अमारे तेना प्रत्ये प्रेम करवो जोईए. अने
अमुक जीवो धर्मना विरोधी छे माटे तेना प्रत्ये द्वेष करवो जोईए.’ एम तो समकीति पण मानता नथी. समकीतिने
भूमिका प्रमाणे साधर्मी धर्मात्मा उपर उल्लास अने वात्सल्यनो भाव आवे, पण परने कारणे ते भाव नथी तेम ज
ते भाव सदा कर्या करुं एवी पण तेनी बुद्धि नथी. केम के इन्द्रियो तरफनो वेपार छूटी गयो छे एटले ईन्द्रियोथी
रहित मारुं अस्तित्व छे एम तेणे जाण्युं छे. ईंद्रियविषयोनी बुद्धि ज जेने छूटी गई छे तेने कोई पण जीव शत्रु के
मित्ररूपे देखातो नथी, हुं तो ज्ञान छुं. धर्मात्मा हो के मिथ्याद्रष्टि हो, पण ते कोई मने रागनुं के द्वेषनुं कारण नथी,
आवी बुद्धि होवाथी धर्मीने पर प्रत्ये मित्र के शत्रुनी बुद्धिथी राग–द्वेष थता नथी. अहीं तो ते उपरांत मुनिदशाना
समभावनी वात छे. मुनिराज कहे छे के हुं तो ज्ञानपणे ज रहेवा मागुं छुं, मे समस्त ईंद्रियविषयनो वेपार छोडयो
छे, पर प्रत्ये मारी परिणति ज जती नथी तेथी जगतना बधा जीवो प्रत्ये मने समता ज छे. परमात्मा हो के पामर
हो, बधा जीवो प्रत्ये मने समता छे. भगवान प्रत्ये के गुरु प्रत्ये भक्तिनो प्रमोद आवे तेनो समकिती ज्ञाता ज छे.
आ प्राणी मने ठीक, ने आ प्राणी मने अठीक–एवुं समकीतिनी द्रष्टिमां नथी.
मुनिओने पण कोईवार एवो खेद थाय के अरेरे! आत्माना हितनी आवी वात अज्ञानी जीवो केम
समजता नथी! आटलो विकल्प आवे ते पण साधकभावमां वच्चे बाधकरूप छे, तेनाथी भिन्नतानुं भान वर्ते छे.
भेदज्ञान वगर अज्ञानी जीव समता राखे ने कोई बाळी नांखे तोय क्रोध न करे ने क्षमानो शुभभाव राखे, तोपण
तेने खरेखर समभावनो छांटोय नथी; केम के समभाव करनारो एवो जे ज्ञानस्वरूप आत्मा तेनी तो तेने खबर
नथी ने ईंद्रियविषयोनो वेपार तेणे छोडयो ज नथी. अतीन्द्रियस्वरूप आत्माना लक्ष वगर ईंद्रियविषयोनो वेपार
छूटे नहि, ने ईन्द्रियविषयनो वेपार छूटया वगर पर प्रत्ये रागद्वेष छूटे ज नहि, एटले तेने समता होय ज नहि;
‘महावीर’ एवुं नाम बोलतां बोलतां देह छोडे तो पण तेने समभाव नथी. मुनिओए तो भेदज्ञान करीने
ईंद्रियोनो वेपार छोडयो छे ने परिणतिने आत्मामां जोडी छे तेथी तेमने समभाव ज छे; कोई प्रत्ये राग–द्वेषनी
परिणति ज थती नथी. पोते तो पोताना ज्ञानमां लीन छे–आनंदना ज वेदनमां परिणतिने जोडी दीधी छे,–त्यां
जगतमां कोण मित्र, ने कोण शत्रु? वीतरागशासननो मोटो वेरी होय तो पण तेना प्रत्ये शत्रुतारूप वेरभाव थतो
नथी, ने महा धर्मात्माओ प्रत्ये मित्रतानो रागभाव थतो नथी. आत्मा तो ज्ञायक छे, तेनो स्वभाव जाणवानो
ः २७४ः
आत्मधर्म खास अंक