Atmadharma magazine - Ank 143a
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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छे; ते कोने न जाने? बधाने जाणवानो स्वभाव छे, कोईना प्रत्ये राग द्वेषनी वृत्ति करवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी.
माटे ज्ञान स्वभावमां जेणे उपयोगने जोडयो छे तेने कोई प्रत्ये राग–द्वेष थता नथी. आनुं नाम सर्व जीवोमां
समभाव, ने कोई साथे वेर नहि.
मुनिओने राग–द्वेषरहित आवी सहज वैराग्यपरिणति होय छे, तेथी कोईपण आशा वर्तती नथी. आ चीज
आम होय तो ठीक ने आ चीज आम न होय तो ठीक एवी कोई परपदार्थनी आशा मुनिओने नथी केमके चैतन्यनी
परिणतिमां सहज वैराग्य वर्ते छे. भगवाननो साक्षात् भेटो थाय तो ठीक, ने शत्रुओ दूर थाय तो ठीक आवी आशा
मुनिवरोने सहज वैराग्य परिणमतिमां होती नथी, तेमने तो परम समरसीभावनां वेदनमां परमसमाधिनो ज
आश्रय वर्ते छे. समकितने हजी अल्प रागद्वेष परिणति थती होवा छतां तेनी अंर्तद्रष्टिमां तो चैतन्यस्वभावनो
आश्रय वर्ते छे, ने परप्रत्ये रागद्वेषनो अभिप्राय तेने छूटी गयो छे. अहीं तो सम्यग्दर्शन उपरांत मुनिदशामां शुद्ध
परिणति थतां केवी समाधि वर्ते छे तेनी आ वात छे. आवा मुनिवरोने अने धर्मात्माओने मृत्यु पण महोत्सव छे....
चैतन्यनी समाधिनो त्यां महोत्सव मंडाय छे; तेमने मृत्युनो भय नथी. जगतना मूढ जीवोने मरणनी बीक छे, पण
हुं तो ज्ञानानंदस्वभाव छुं–एवा स्वभावना भानमां धर्मात्माने मृत्यु वखते पण शांति अने समाधिनो महोत्सव
छे; एने मरणनो भय नथी. जुओ, आ सुकोशल मुनिना शरीरने वाघ फाडी खाय छे, पण ए मुनिराजने कोई प्रत्ये
वेरभाव नथी, आत्माना स्वभावमां लीन थईने तेने परमसमरसीभाव झरे छे, तेमां सर्व जीवो प्रत्ये समभावरूप
परमसमाधि वर्ते छे, आवी सहज वैराग्यपरिणतिमां कोई मित्र के शत्रु छे ज नहीं. आत्मानी समाधिमां मुनिवरोने
अनाकुळ आनंदनुं ज वेदन छे; बीजो कोई विकल्प के चिंतानी आकुळता तेमां नथी. शरीरने फाडी खानार सिंह–वाघ
उपर द्वेष नथी, आ मारो शत्रु एवी द्वेषनी वृत्ति पण ऊठती नथी. अरे! एवी आत्माना आनंदमां लीनता जामी
गई छे के ‘आ सिंह छे ने शरीरने खाय छे’ एटलुं ज पण परलक्ष ज्यां थतुं नथी,–आवी उत्तम समाधि छे, ने तेनुं
फळ मोक्ष छे. आनुं नाम–‘शत्रु मित्र प्रत्ये वरते समदर्शिता.’
*
बधा आत्मा ज्ञानस्वभावी ज छे–एवी द्रष्टिमां कोना उपर राग के कोना उपर द्वेष? बधाय आत्मा
ज्ञानस्वभावे परिपूर्ण भगवान छे, कोण कोनी साथे वेर करे? ने कोण कोनी साथे मित्रता करे? योगीन्द्र मुनिराज
कहे छे के–
कोण कोनी मैत्री करे, कोनी साथे कलेश,
ज्यां देखुं त्यां सर्व जीव, शुद्धबुद्ध ज्ञानेश.
अहो, शुद्धस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां बधाय आत्मा शुद्ध ज्ञाननी ज मूर्ति छे; स्वभावमां नाना मोटापणुं छे
ज नहि; आवा शुद्धआत्मस्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञानीने रागद्वेष अभिप्राय नथी. चोथा गुणस्थाने पण समकीतिने
आवो वीतरागी अभिप्राय तो थई गयो छे, छतां हजी रागद्वेषनी अल्पवृत्ति अस्थिरताने लीधे थाय छे. अने
मुनिओने तो अभिप्राय उपरांत रागरहित एवी स्थिरता थई गई छे के कोई प्रत्ये शत्रु–मित्रपणानी वृत्ति ज
ऊठती नथी. तेमनी समीपमां बीजा जीवो तो वेरभाव छोडे के न छोडे, पण तेमने पोताने कोईना प्रत्ये वेरभाव
थतो ज नथी. आनुं नाम वीतरागी अहिंसा छे, तेनुं फळ बहारमां नथी आवतुं, पण अंतरमां पोताने अनाकुळ
शांतिनुं वेदन थाय छे–ए ज तेनुं फळ छे. पछी त्यां समीपमां बीजा जीवो हिंसाना परिणाम करे तो तेथी कांई आ
मुनिराजनी वीतरागी अहिंसामां दोष नथी.
शरीरने फाडी खानार सिंह उपर द्वेष नथी, आ मारो शत्रु–एवी द्वेषनी वृत्ति पण ऊठती नथी; अरे!
समाधिमां स्थित मुनिओने, आ सिंह छे ने शरीरने खाय छे–एटलुं पण परलक्ष क्यां छे? तेम ज चक्रवर्तीराजा
आवीने चरणमां नमस्कार करता होय त्यां रागनी वृत्ति पण थती नथी; आवी वीतरागपरिणतिनुं नाम समाधि छे.
आ सिवाय आत्माना भान वगर हठजोग ल्ये के जीवतो जमीनमां डटाय ते कांई समाधि नथी, तेमां तो आत्मानी
अनंती असमाधि छे. अहीं तो ज्ञानमां एकाग्र थईने आनंदना वेदनमां पडया छे एवा मुनिवरोनी समाधिनी वात
छे. आवी परिणतिमां मुनिओने कोई आशा नथी, पण परम उदासीनतारूप समाधि एटले के आत्माना शांतरसमां
लीनता वर्ते छे.
बीजो भादरवो ः २७पः