Atmadharma magazine - Ank 143a
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 21

background image
आधि व्याधि ने उपाधि ए त्रणेथी रहित आत्मानी परिणति ते समाधि छे; शरीर संबंधी चिंता, मन
संबंधी चिंता, के स्त्री–पुत्रादि भिन्न पदार्थोनी चिंता,–ए त्रणे प्रकारनी चिंताथी पार ज्ञानस्वभावनुं ज चिंतन
एटले के एकाग्रता तेनुं नाम समाधि छे; ते समाधिमां अनाकुळ आनंदनुं ज वेदन छे, बीजा कोई विकल्प के चिंतानी
आकुळता तेमां नथी.
आ आत्मानो मित्र के शत्रु जगतमां बीजो कोई नथी. आत्मानो मित्र एवो जे पोतानो परमस्वभाव तेमां
लीन थई गया छे तेथी बहारमां कोई प्रत्ये ‘आ मारो मित्र’ एवो रागनो विकल्प मुनिओने थतो नथी; अने शत्रु
एवो जे मोहभाव, तेनो तो नाश थई गयो छे तेथी बहारमां कोई प्रत्ये ‘आ मारो शत्रु’ एवी द्वेषनी वृत्ति पण
थती नथी; आवी मुनिओनी दशा छे. सिंह आवीने शरीरने फाडी खाता होय त्यां मुनि एम विचारे के मारे शरीर
जोईतुं नथी ने आ सिंह आवीने तेने लई जाय छे तो ते मारो मित्र छे,–आम समजाववा माटे कहेवाय, बाकी तो
देह प्रत्येनो के सिंह प्रत्येनो एटलो शुभविकल्प ऊठे तो ते पण खरेखर समाधिमां भंग छे. समाधिमां लीन
मुनिओने तो एटलो शुभविकल्प पण नथी ऊठतो. अहो! मुनि तो आनंदना दरियामां पडया छे.....आनंदना
दरियामांथी बहार नीकळीने परलक्ष करवानो अवकाश ज कयां छे? जुओ, आ वीतराग मार्गना मुनिओनी
समाधि! ‘आ शरीर तथा कुटुंब पुत्र वगेरे बधा जीवना दुश्मनो छे माटे तेनो त्याग करो’–एम परने शत्रु मानीने
छोडवा मांगे ते तो मिथ्याद्रष्टि छे, तेने समभाव नथी पण परप्रत्ये मोटो वेरभाव छे. वळी, ‘राजा जुल्मी होय तो
तेनो विरोध करवो ज जोईए’ एवी जेनी मान्यता छे तेने ज्यां ज्यां अने ज्यारे ज्यारे जुल्मी राजा पाके त्यां त्यां
अने त्यारे द्वेषभाव करवानो ज अभिप्राय थयो, वीतरागतानो तो अभिप्राय न थयो; तेने तो समभाव बिलकुल
होय ज नहि. ज्ञानीने कोईकवार द्वेषभाव थई जाय पण त्यां द्वेष करवो ज जोईए एवो एनो अभिप्राय नथी
अथवा राजा जुल्मी छे माटे मारे द्वेष करवो पडे छे एवो पण अभिप्राय नथी, एटले द्रष्टिमां तो तेने समभाव ज
वर्ते छे. ते उपरांत अहीं तो रागद्वेषरहित वीतरागी समभावनी वात छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक वीतरागी समाधिरूपे परिणमेला मुनिओ कहे छे के आ जगतमां अमारे कोई मित्र के
शत्रु नथी, तेथी अमने कोईनी आशा नथी. श्रद्धाए एम स्वीकार्युं छे के ‘हुं तो परिपूर्ण ज्ञायकमूर्ति ज छुं,’–तेमां
बीजा कोइनी आशा नथी, ज्ञाने एवुं भेदज्ञान कर्युं छे के ‘जगतना बधा पदार्थोथी मारो ज्ञानानंदस्वभाव जुदो छे,’
तेथी तेमां पण कोईनी आशा नथी; अने चारित्रे अंर्तस्वरूपमां लीन थईने राग–द्वेषनी वृत्ति ज तोडी नाखी छे,
तेथी तेमां पण कोईनी आशा नथी. आ रीते मुनिओ आशा रहित थईने रत्नत्रयनी एकतारूप समाधिपणे
परिणमी गया छे.
कोई पण जातनी ईच्छा आत्मानी पवित्रताने (वीतरागताने) रोकनार छे; जे ईच्छा आत्मानी
वीतरागता न थवा दे तेने ज्ञानी केम इच्छे? आत्मा ईच्छा करे तेथी कांई बहारनुं (शरीरनी नीरोगता वगेरे) थई
जतुं नथी, एटले ईच्छा परमां पण नकामी छे, ने पोतामां पवित्रताने रोकनार छे, तो ज्ञानी तेने केम इच्छे?
ईच्छाथी मारो ज्ञानस्वभाव जुदो ज छे एवा भेदज्ञानपूर्वक ज्ञानमां एकाग्र थईने मुनिओए ईच्छाने छोडी दीधी
छे, तेनुं नाम समाधि छे. तेथी कह्युं के ‘आशा खरेखर छोडीने प्राप्ति करुं छुं समाधिनी.’ आवी मुनिओनी
अंतरदशा होय छे. हजी तो जेने एवुं अभिमान होय के हुं मारी ईच्छा वडे देहादिनी क्रिया करुं छुं, ते जीव परना
अहंकारमां रोकाणो छे, ते तो मिथ्याद्रष्टि छे तेने आशा छूटे नहि ने समाधि थाय नहि.
‘सौ भूतमां ममता मने, को साथ वेर मने नही;
आशा खरेखर छोडीने प्राप्ति करुं छुं समाधिनी.’
–जुओ, आ मुनिओना भावनी शुद्धता! ‘सर्वे जीवो प्रत्ये मने समता छे, मारे कोई साथे वेर नथी.
खरेखर आशाने छोडीने हुं समाधिने प्राप्त करुं छुं’ मुनिओने आवी परिणति थई गई होय छे.
अहो! हुं तो ज्ञानस्वभावी चैतन्यवस्तु छुं, हुं कोईनो मित्र के शत्रु नथी, ने कोई मारा मित्र के शत्रु नथी,
पर साथेनो संबंध तोडीने मारा स्वभाव साथे में संबंध जोडयो छे तेथी मने कोई प्रत्येनी आशा नथी, सर्व
ः २७६ः
आत्मधर्म खास अंक