एटले के एकाग्रता तेनुं नाम समाधि छे; ते समाधिमां अनाकुळ आनंदनुं ज वेदन छे, बीजा कोई विकल्प के चिंतानी
आकुळता तेमां नथी.
एवो जे मोहभाव, तेनो तो नाश थई गयो छे तेथी बहारमां कोई प्रत्ये ‘आ मारो शत्रु’ एवी द्वेषनी वृत्ति पण
थती नथी; आवी मुनिओनी दशा छे. सिंह आवीने शरीरने फाडी खाता होय त्यां मुनि एम विचारे के मारे शरीर
जोईतुं नथी ने आ सिंह आवीने तेने लई जाय छे तो ते मारो मित्र छे,–आम समजाववा माटे कहेवाय, बाकी तो
देह प्रत्येनो के सिंह प्रत्येनो एटलो शुभविकल्प ऊठे तो ते पण खरेखर समाधिमां भंग छे. समाधिमां लीन
मुनिओने तो एटलो शुभविकल्प पण नथी ऊठतो. अहो! मुनि तो आनंदना दरियामां पडया छे.....आनंदना
दरियामांथी बहार नीकळीने परलक्ष करवानो अवकाश ज कयां छे? जुओ, आ वीतराग मार्गना मुनिओनी
समाधि! ‘आ शरीर तथा कुटुंब पुत्र वगेरे बधा जीवना दुश्मनो छे माटे तेनो त्याग करो’–एम परने शत्रु मानीने
छोडवा मांगे ते तो मिथ्याद्रष्टि छे, तेने समभाव नथी पण परप्रत्ये मोटो वेरभाव छे. वळी, ‘राजा जुल्मी होय तो
तेनो विरोध करवो ज जोईए’ एवी जेनी मान्यता छे तेने ज्यां ज्यां अने ज्यारे ज्यारे जुल्मी राजा पाके त्यां त्यां
अने त्यारे द्वेषभाव करवानो ज अभिप्राय थयो, वीतरागतानो तो अभिप्राय न थयो; तेने तो समभाव बिलकुल
होय ज नहि. ज्ञानीने कोईकवार द्वेषभाव थई जाय पण त्यां द्वेष करवो ज जोईए एवो एनो अभिप्राय नथी
अथवा राजा जुल्मी छे माटे मारे द्वेष करवो पडे छे एवो पण अभिप्राय नथी, एटले द्रष्टिमां तो तेने समभाव ज
वर्ते छे. ते उपरांत अहीं तो रागद्वेषरहित वीतरागी समभावनी वात छे.
बीजा कोइनी आशा नथी, ज्ञाने एवुं भेदज्ञान कर्युं छे के ‘जगतना बधा पदार्थोथी मारो ज्ञानानंदस्वभाव जुदो छे,’
तेथी तेमां पण कोईनी आशा नथी; अने चारित्रे अंर्तस्वरूपमां लीन थईने राग–द्वेषनी वृत्ति ज तोडी नाखी छे,
तेथी तेमां पण कोईनी आशा नथी. आ रीते मुनिओ आशा रहित थईने रत्नत्रयनी एकतारूप समाधिपणे
परिणमी गया छे.
जतुं नथी, एटले ईच्छा परमां पण नकामी छे, ने पोतामां पवित्रताने रोकनार छे, तो ज्ञानी तेने केम इच्छे?
ईच्छाथी मारो ज्ञानस्वभाव जुदो ज छे एवा भेदज्ञानपूर्वक ज्ञानमां एकाग्र थईने मुनिओए ईच्छाने छोडी दीधी
छे, तेनुं नाम समाधि छे. तेथी कह्युं के ‘आशा खरेखर छोडीने प्राप्ति करुं छुं समाधिनी.’ आवी मुनिओनी
अंतरदशा होय छे. हजी तो जेने एवुं अभिमान होय के हुं मारी ईच्छा वडे देहादिनी क्रिया करुं छुं, ते जीव परना
अहंकारमां रोकाणो छे, ते तो मिथ्याद्रष्टि छे तेने आशा छूटे नहि ने समाधि थाय नहि.
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