समाधिमां स्थिर थया छीए, अने हे जगतना जीवो! एम कर्युं ते प्रमाणे तमे पण करो.
प्रत्ये राग के द्वेष नथी. अपूर्व अवसरमां एम कह्युं छे के–
वीतरागी आनंदना प्रवाहमां लीन थाउं छुं, तेथी मारे कोई साथे शत्रुता के मित्रता नथी. हुं ज्ञायक, ज्ञायकपणे ज रहुं
छुं, राग–द्वेषपणे परिणमतो नथी; एटले ज्ञेयमां पण एक इष्ट ने बीजुं अनीष्ट एवा भागला पाडतो नथी.
तो पछी केवळज्ञान थया पछी भगवान कोईने वंदनादि करे ए वात तो कयां रही? ए तो घणी ज विपरीत वात छे.
थती नथी. वळी शरीरमां मोटो रोग थाय, के पछी महान ऋद्धिओ प्रगटे तो पण मुनिओने समभाव छे, एक
अनीष्ट ने बीजुं इष्ट एवो राग–द्वेष नथी. अमे तो अमारा चैतन्यनी केवळज्ञानऋद्धिने साधनारा छीए, त्यां आ
जड जडऋद्धिनो आदर केम होय? अशरीरी सिद्धपदने साधनारा छीए त्यां आ शरीर उपर राग केम होय? आ रीते
मुनिओने समभाव होयछे.
देह जाय पण माया थाय न रोममां,
लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो,
– अपूर्व अवसर एवो कयारे आवशे....’
एटले कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतोना पगले अमे कयारे विचरशुं!–आवी भावना भावी छे. ज्यारे आ
शास्त्रकार अने टीकाकार मुनिवरो तो एवी दशामां वर्ती ज रह्या छे; तेथी कहे छे के अहो! अमे तो चैतन्यमूर्ति
साक्षीस्वरूप छीए. अमारा ज्ञानानंदस्वभाव साथे संबंध जोडीने, जगत साथेनो संबंध अमे तोडी नाख्यो छे तेथी
अमने कोई आशा नथी पण स्वभावनी समाधि वर्ते छे, जगतना सर्वे जीवोमां अमने समता छे. जुओ, आ
दशा!! आत्मामां आवी दशा प्रगटे ते ज शांति अने शरणरूप छे, ए सिवाय जगतमां बीजुं कोई शरणभूत नथी.
भाई! जगतना चेतन के जड बधा पदार्थो एना परिणमन प्रवाहपणे ज बदल्या करशे, तुं तेमां शुं करीश? तुं तारा
ज्ञानस्वभावने संभाळीने ज्ञातापणे रहे, तो तने समता अने शांति थाय.