Atmadharma magazine - Ank 143a
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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प्रकारनी आशा छोडीने चैतन्यमां लीन थाउं छुं. आचार्य कुंदकुंद भगवान कहे छे के अमे राग–द्वेष रहित परम
समाधिमां स्थिर थया छीए, अने हे जगतना जीवो! एम कर्युं ते प्रमाणे तमे पण करो.
मुनिराज कहे छे के, अज्ञानी हो के भेदज्ञानी हो तेना प्रत्ये मने समता छे, एटले खरेखर तो बहिर्मुख
वलण ज जतुं नथी. बहिर्मुख वलण छोडीने हुं तो मारा चैतन्यमां ज अंतर्मुख थाउं छुं, तेथी बहारमां मने कोई
प्रत्ये राग के द्वेष नथी. अपूर्व अवसरमां एम कह्युं छे के–
‘शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता.......’
अने अहीं कहे छे के ज्ञानी के अज्ञानी प्रत्ये समता छे. जगतना जीवो पोतपोताना परिणमन–प्रवाहमां वही
रह्या छे, पोताना परिणमनमांथी बहार नीकळीने बीजानुं कांई सुधारवा के बगाडवा कोई समर्थ नथी. हुं तो मारा
वीतरागी आनंदना प्रवाहमां लीन थाउं छुं, तेथी मारे कोई साथे शत्रुता के मित्रता नथी. हुं ज्ञायक, ज्ञायकपणे ज रहुं
छुं, राग–द्वेषपणे परिणमतो नथी; एटले ज्ञेयमां पण एक इष्ट ने बीजुं अनीष्ट एवा भागला पाडतो नथी.
मुनि ज्यां निर्विकल्प समाधिमां स्थिर थाय त्यां केवळज्ञानी भगवान प्रत्येनो वंदनादिनो विकल्प पण रहेतो
नथी, तेम ज शासनना विरोधी मूढ जीवो प्रत्ये द्वेषादिनो विकल्प पण होतो नथी;–आवी तो छद्मस्थ मुनिनी दशा छे,
तो पछी केवळज्ञान थया पछी भगवान कोईने वंदनादि करे ए वात तो कयां रही? ए तो घणी ज विपरीत वात छे.
कोई दुष्ट जीव आवीने वेरभावथी मोटो उपसर्ग करे के चक्रवर्ती राजा आवीने भक्तिथी चरणमां पडे,
तोपण समाधिवंत मुनिओने रोमरायमां द्वेष के राग थतो नथी, एक मारो शत्रु ने बीजो मारो मित्र,–एवी वृत्ति
थती नथी. वळी शरीरमां मोटो रोग थाय, के पछी महान ऋद्धिओ प्रगटे तो पण मुनिओने समभाव छे, एक
अनीष्ट ने बीजुं इष्ट एवो राग–द्वेष नथी. अमे तो अमारा चैतन्यनी केवळज्ञानऋद्धिने साधनारा छीए, त्यां आ
जड जडऋद्धिनो आदर केम होय? अशरीरी सिद्धपदने साधनारा छीए त्यां आ शरीर उपर राग केम होय? आ रीते
मुनिओने समभाव होयछे.
‘बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं,
वंदे चक्री तथापि न मळे मान जो,
देह जाय पण माया थाय न रोममां,
लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो,
– अपूर्व अवसर एवो कयारे आवशे....’
अहो! आवा निर्ग्रंथ महात्माओना वीतरागमार्गे अमे क्यारे विचरीए, ए धन्य अवसर अमने कयारे
आवे!–एम श्रीमद् राजचंद्रजीए भावना भावी छे. ‘विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो’...ए महान पुरुषोना पंथे
एटले कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतोना पगले अमे कयारे विचरशुं!–आवी भावना भावी छे. ज्यारे आ
शास्त्रकार अने टीकाकार मुनिवरो तो एवी दशामां वर्ती ज रह्या छे; तेथी कहे छे के अहो! अमे तो चैतन्यमूर्ति
साक्षीस्वरूप छीए. अमारा ज्ञानानंदस्वभाव साथे संबंध जोडीने, जगत साथेनो संबंध अमे तोडी नाख्यो छे तेथी
अमने कोई आशा नथी पण स्वभावनी समाधि वर्ते छे, जगतना सर्वे जीवोमां अमने समता छे. जुओ, आ
दशा!! आत्मामां आवी दशा प्रगटे ते ज शांति अने शरणरूप छे, ए सिवाय जगतमां बीजुं कोई शरणभूत नथी.
भाई! जगतना चेतन के जड बधा पदार्थो एना परिणमन प्रवाहपणे ज बदल्या करशे, तुं तेमां शुं करीश? तुं तारा
ज्ञानस्वभावने संभाळीने ज्ञातापणे रहे, तो तने समता अने शांति थाय.
नमस्कार हो....सहजवैराग्यपरिणतिवाळा ए वीतरागी संतोनो!
बीजो भादरवो ः २७७ः