
जाणनारनी द्रष्टि शुद्धचैतन्यद्रव्य उपर ज होय छे, जो एवी द्रष्टि न होय तो तेने वस्तुनुं ज्ञान ज साचुं नथी.
मोक्ष थवानुं ते माने नहि. निश्चयथी आत्मा पोताना बंध–मोक्षमां परनी अपेक्षारूप द्वैतने अनुसरतो नथी,
अद्वैतने अनुसरीने एटले के पोते एकलो ज बंध–मोक्षरूपे परिणमे छे.
कर्म छूट्या माटे जीवनी मुक्ति थई? –ना;
कर्मनी पर्याय कर्ममां, ने जीवनी पर्याय जीवमां.
जीव पोते पोतानी पर्यायमां विकाररूपे परिणम्यो तेथी बंधन थयुं, अने जीव पोते पोतानी पर्यायमां
के तेमां परनी अपेक्षा नथी. आम छतां व्यवहारनये, आत्मानी बंध–मोक्षपर्यायमां कर्मना संयोग–वियोगनी जे
अपेक्षा छे तेनुं पण साधकने ज्ञान छे–ए वात ४४मा नयमां सिद्ध करी छे.
सर्वज्ञदेवना सर्व उपदेशनुं तात्पर्य छे.
श्रद्धापणे पोतानी धु्रवताने आत्मा स्पर्शे छे, पण सम्यक्त्वनां निमित्तभूत एवां देव–गुरु के शास्त्रने आत्मा
स्पर्शतो नथी, ते तो जुदा स्वभाववाळां पदार्थो छे. सम्यग्दर्शननी उत्पत्ति, मिथ्यात्वनो व्यय तथा श्रद्धापणानी
सळंगतारूप धु्रवता–ए त्रणेय, आत्मामां ज समाय छे; पण ते सिवायनां जे बाह्य निमित्तो छे तेओ आत्मामां
समाता नथी पण बहार ज रहे छे एटले आत्मा तेमने स्पर्शतो नथी. समये समये उत्पाद–व्यय–धु्रवतारूप
पोतानो स्वभाव छे, ते स्वभावने ज दरेक द्रव्य स्पर्शे छे एटले पोताना स्वभावपणे ज वर्ते छे, पण परद्रव्यने
कारणे कोईना उत्पाद–