Atmadharma magazine - Ank 144
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४८१ : ३०५ :
तेमनुं क्रमबद्धपणुं–नियमितपणुं बतावे छे. जो पर्यायोनो त्रणेकाळनो क्रम निश्चित न होय तो
दिव्यज्ञान तेमने अक्रमे एकसाथे वर्तमान जाणी न शके; एटले ते ज्ञाननी दिव्यता ज न रहे! माटे
त्रणकाळनी पर्यायोनो निश्चित क्रम जे नथी मानतो ते केवळज्ञाननी दिव्यताने जाणतो नथी, –
सर्वज्ञने जाणतो नथी, आत्माना ज्ञानस्वभावने जाणतो नथी.
(१२) अहीं आचार्य भगवान ज्ञाननी दिव्यता ओळखावे छे. भाई! शुद्धोपयोगना फळमां
जे केवळज्ञान खील्युं तेनुं एवुं दिव्य प्रभुत्व छे के वर्तमान नहि वर्तती एवी भवीष्यनी पर्यायोने
पण वर्तमान पर्यायनी माफक ज साक्षात् जाणी ल्ये छे, समस्त पर्यायो सहित बधाय पदार्थो ते
ज्ञानमां ज्ञेयपणे एक साथे अर्पाई जाय–एवुं ते उत्कृष्ट ज्ञाननुं परम सामर्थ्य छे.
(१३) “अहो! ज्ञाननुं आवुं सामर्थ्य!!” –एम ज्ञाननो आवो दिव्य महिमा समजे तेने
लांबो संसार रहे नहि; ज्ञानना महिमाना बळे अल्पकाळमां सर्वज्ञ थई जाय, ने तेने भव रहे नहि.
(१४) “हे भगवान! मारो मोक्ष क्यारे थशे!!”–एम सर्वज्ञने जेणे जेणे प्रश्न पूछ्यो ते
बधाय जीवो निकट मोक्षगामी ज हता. केम के सर्वज्ञदेवने प्रश्न पूछनाराओना हृदयमां सर्वज्ञतानो
महिमा वर्ततो हतो. अने जेना हृदयमां सर्वज्ञतानो महिमा वर्ततो होय तेने विशेष भव होय ज
नहि. सर्वज्ञतानो महिमा करनार जीव ज्ञानस्वभावनो आदर करे छे ने रागादिनो आदर छोडे छे
एटले तेने अल्पकाळमां मुक्ति थई जाय छे. सर्वज्ञभगवानने प्रश्न पूछनारो जीव, अभव्य के
अनंतसंसारी होय एवो कोई दाखलो छे ज नहीं.
(१५) ज्ञानमां भव नथी, ज्ञान स्वभावनो निर्णय करे तेने भवनी शंका रहे नहि. ‘हुं ज्ञान
छुं’ एम निर्णय करे अने तेने अनंत भवमां रखडवानी शंका रहे–एम बने ज नहि.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करनारने अनंत भव होय ज नहि, पण अल्पकाळे मुक्ति ज होय. आवा
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करवो ते मुक्तिनो उपाय छे.
(१६) जुओ, आ दिव्यज्ञाननो महिमा! ज्ञान ते आत्मानो परम स्वभाव छे; ते ज्ञान–
स्वभाव ईन्द्रियोथी ने रागथी पार छे. आवा ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने, ज्ञानपर्याय ज्यां
स्वसन्मुख वळी त्यां रागथी जुदो पडीने आनंदनो अनुभव थाय छे; ए रीते ज्ञानस्वभावमां
लीनता थईने ज्यां केवळज्ञान खील्युं त्यां ते ज्ञानने कोई विघ्न नथी, ते ज्ञाननो दिव्य महिमा खीली
नीकळ्‌यो छे, तेनुं अचिंत्यसामर्थ्य प्रगटी गयुं छे.
(१७) ते केवळज्ञाननो महिमा करतां आचार्यदेव कहे छे के अहो! ए दिव्यज्ञाननो प्रताप
अखंड छे, तेनी अचिंत्य प्रभुताना जोरथी ते एक साथे सर्वे ज्ञेयोने पहोंची वळे छे, जे पर्यायो हजी
व्यक्त नथी थई एने पण ते ज्ञान अत्यारे जाणी ल्ये छे. जो त्रणकाळना समस्त ज्ञेयोने एक साथे
न जाणी ल्ये तो ए ज्ञाननी दिव्यता शी?
(१८) क्षायोपशमिकज्ञान तो ज्ञेयोने क्रमे क्रमे जाणतुं हतुं अने थोडुंक ज जाणतुं हतुं, ने आ
अतीन्द्रिय–क्षायिकज्ञान तो एवुं दिव्य छे के एकसाथे ज सर्वज्ञेयोने जाणी ले छे, तेम ज तेमां
ईन्द्रियोनुं अवलंबन नथी, विघ्न नथी, पराधीनता नथी, ज्ञेयोने जाणवानी आकुळता पण नथी,
पोताना स्वाभाविक परम आनंदमां ते लीन छे.