Atmadharma magazine - Ank 144
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २९४ : : आसो: २४८ :
बंधनी लायकात वखते आत्मा पोते कर्मना सद्भावने अनुसरे छे, अने पोतानी पर्यायमां मोक्षनी लायकात
वखते आत्मा कर्मना अभावने अनुसरे छे. पण कर्ममां एवो धर्म नथी के ते बळजोरीथी आत्माने अनुसरावे.
जेटलो कर्मनो उदय आवे तेटला प्रमाणमां आत्माए तेने अनुसरवुं ज पडे–एम नथी. कर्मना उदयने न
अनुसरतां पोताना स्वभावने अनुसरे तो मोक्षनुं साधन थाय ने मोक्षदशा प्रगटे, ते मोक्षमां आत्मा कर्मना
अभावने अनुसरे छे. स्वभावने न अनुसरतां कर्मने अनुसरे तो बंधन थाय छे, ने कर्मने न अनुसरतां
स्वभावने अनुसारे अर्थात् कर्मना अभावने अनुसरे–तो मोक्ष थाय छे. आ रीते बंधमां कर्मना सद्भावनुं
निमित्त छे ने मोक्षमां कर्मना अभावनुं निमित्त छे, एम जाणवुं जोईए. बंध के मोक्षनी अवस्थारूप परिणमन
तो आत्मा पोते एकलो ज करे छे, मात्र तेमां कर्मना सद्भाव के अभावरूप निमित्तनी अपेक्षा आवे छे, तेथी
व्यवहारनये आत्मा द्वैतने अनुसरनार छे–एम कह्युं छे; परंतु कर्म आत्माने बंध–मोक्ष करावे छे–एवो, एनो
अर्थ नथी. निश्चयथी तो आत्मा राग करे ने व्यवहारथी कर्म राग करावे–एम पण नथी. आत्मा पोते राग करे
त्यारे कर्मने अनुसरे छे, स्वभावने अनुसरीने राग न थाय; माटे रागमां कर्मना निमित्तनी अपेक्षा छे तेनुं
ज्ञान करवुं ते व्यवहारनय छे, परंतु कर्म राग करावे छे–एम मानवुं ते तो भ्रम छे. प्रवचनसारनी १२६ मी
गाथामां आचार्यदेवे ए वात स्पष्ट करी छे के अज्ञानदशामां के ज्ञानदशामां, संसारमां के मोक्षमां, आत्मा पोते
एकलो ज कर्ता छे.
प्रश्न:– एक जीवने क्षायिक सम्यकत्व थयुं, राग–द्वेष आत्मानो स्वभाव नथी, आत्मा राग–द्वेष रहित
ज्ञायक–स्वभाव छे–एवुं भान थयुं, छतां तेने पण राग–द्वेष केम थाय छे? कर्म ज तेने राग–द्वेष करावे छे, केमके
राग–द्वेष करवानी तेनी भावना तो नथी?
उत्तर:– क्षायिक सम्यकत्व थयुं होवा छतां, अने राग–द्वेष रहित चिदानंदस्वभावनुं भान थयुं होवा छतां,
ते जीवने जे राग–द्वेष थाय छे ते कर्म नथी करावतुं परंतु ते आत्मा पोते कर्मने अनुसरे छे तेथी राग–द्वेष थाय
छे; कर्मनो उदय तेने पराणे रागद्वेष करावे छे–एम नथी. राग–द्वेष करवानी धर्मीने भावना नथी, भावना तो
स्वभावने ज अनुसरवानी छे, परंतु अस्थिरताथी हजी राग–द्वेष थाय छे ते कर्मने अनुसरीने थाय छे,–एम ते
जाणे छे, ने स्वभावनी द्रष्टिना जोरे क्षणे क्षणे तेने कर्मनुं अवलंबन तूटतुं जाय छे ने स्वभावनुं अवलंबन
वधतुं जाय छे, ए रीते स्वभावनुं पूर्ण अवलंबन थतां मोक्ष थशे, त्यारे आत्मा कर्मना अभावने अनुसरशे.
आ रीते व्यवहारे बंध तेम ज मोक्षमां आत्मा द्वैतने अनुसरे छे.
अहीं आ नयो साधकना छे; साधकनी वात छे, एकला रखडनारनी आ वात नथी. जेनी द्रष्टिमां एकला
कर्मनुं ज अवलंबन छे, स्वभावनुं अवलंबन जरापण नथी तेने तो आ व्यवहारनय पण होतो नथी. ज्ञानीने
द्रष्टिमां तो निरपेक्ष ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन वर्ते छे ने हजी साधक दशामां कंईक राग–द्वेष थाय छे तेटलुं
कर्मनुं अवलंबन छे. जेटलो राग छे तेटलुं कर्मनुं निमित्त छे एम ते जाणे छे अने स्वभावना अवलंबने कर्मना
निमित्तनो अभाव थतो जाय छे तेने पण ते जाणे छे. अहीं बंध अने मोक्षमां आत्मा सिवाय बीजानी अपेक्षा
आवी माटे तेमां व्यवहारे द्वैत कह्युं.
समयसारमां द्रष्टिप्रधान कथनमां समकीतिसंतने चोथा गुणस्थाने पण अबंध कह्यो, तेने बंधन थतुं ज
नथी–एम द्रष्टिना जोरे कह्युं; परंतु, चोथे–पांचमे–छठ्ठे गुणस्थाने हजी चारित्रनी अस्थिरताथी जेटला राग–द्वेष
थाय छे तेटलुं बंधन छे, अने ते बंधनमां कर्मना निमित्तनी अपेक्षा आवे छे, तेने साधक व्यवहारनयथी जाणे
छे; अबंध स्वभावनी द्रष्टि राखीने बंधनने अने तेना निमित्तने ते जाणे छे. अबंधस्वभावनी द्रष्टि विना
अज्ञानीने तो बंधननुं ज्ञान पण साचुं थतुं नथी.
जेम एक परमाणु ‘बंधायो के छूटो थयो’ एम लक्षमां लेतां तेमां बीजा परमाणुनी अपेक्षा आवे छे, –
‘आनी साथे बंधायो अथवा तो आनाथी छूटो थयो’ एम बीजा परमाणुनी अपेक्षा आवे छे तेथी ते परमाणु
बंधमां ने मोक्षमां द्वैतने अनुसरनारुं छे; बीजा परमाणुनी अपेक्षा वगर तेने बंध–मोक्ष कही शकाय नहि, तेम
आत्माना बंध के मोक्षने लक्षमां लेतां तेमां कर्मनी अपेक्षा आवे छे, बंध अने मोक्ष तो आत्मा पोते स्वतंत्रपणे
करे छे पण तेमां कर्मना सद्भावनी के अभावनी अपेक्षा आवे छे तेथी व्यवहारनये आत्मा बंध–मोक्षमां