अंशे कर्मने अनुसरे छे ने अंशे कर्मना अभावने पण अनुसरे छे, सर्वथा कर्मना सद्भावने ज अनुसरे छे–एम
नथी, परंतु ते ज वखते अंशे स्वभावने पण अनुसरे छे एटले कर्मना अभावने पण अनुसरे छे.–आ रीते
साधकनी वात छे. परम पारिणामिकभावरूप निरपेक्षस्वभावनी द्रष्टि राखीने, पर्यायना बंध मोक्षमां कर्मना
सद्भावनी के अभावनी जेटली अपेक्षा आवे छे तेने पण साधकजीव जाणे छे. बंध–मोक्षमां द्वैतने अनुसरे छे ते
मारी पर्यायनो धर्म छे एटले बंध–मोक्षमां कर्मना निमित्तनी अपेक्षा आवती होवा छतां, ते बंध अने मोक्ष
बंनेमां मारा आत्मानी स्वतंत्रता छे–एम धर्मी जाणे छे.
पोताथी ज बंध–मोक्षपणे परिणमे छे, पण तेमां कर्मनी अपेक्षा आवे छे तेटली वात छे. जीव पोते विकार करीने
कर्मना उदयने अनुसरे छे त्यारे कर्मने निमित्त कहेवाय छे. निमित्त विकार करावे ए मान्यता तो स्थूळ ऊंधी छे.
हजी तो, पर विकार न करावे पण पोताना दोषथी ज विकार थाय एम मानीने पण ते विकार सामे ज द्रष्टि
राख्या करे, –विकार जेटलो ज आत्माने अनुभव्या करे, तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
मोक्षपर्यायने पण व्यवहार गण्यो छे, भेदमात्रने त्यां व्यवहार गण्यो छे ने शुद्ध–अभेदआत्माने ज निश्चय
गण्यो छे. सम्यग्द्रष्टिने व्यवहारनो–भेदनो आश्रय नथी, समकीतिनी द्रष्टिमां तो एकरूप अभेद शुद्धआत्मा ज
साध्य ने ध्येय छे, ते ध्येयमां एकाग्रता करतां पर्यायनी निर्मळता खीलती जाय छे, बंध टळतो जाय छे ने
मोक्षपर्याय थती जाय छे. पण सम्यग्दर्शनना विषयमां ते पर्यायनो भेद अभूतार्थ छे.
कर्मनी अपेक्षा लईने, आत्मा द्वैतने अनुसरे छे एम जाणवुं ते व्यवहारनय छे. जो आत्मा सर्वथा कर्मना
अभावने अनुसरे तो मोक्षदशा होय; सर्वथा कर्मना उदयने ज अनुसरे तो मिथ्याद्रष्टि होय; साधकने बंने धारा
एक साथे छे एटले के स्वभावना अवलंबने अंशे कर्मना अभावने पण अनुसरे छे ने हजी अल्प विकार छे
तेटला अंशे कर्मने पण अनुसरे छे.
बंधन थवामां ‘बे गुण अधिक’ साथे बंधाय–ए नियम छे, पण छूटवामां कोई नियम नथी. बे परमाणुनो
संयोग थयो ते बंधन, ने बे परमाणु छूटा पड्या ने मोक्ष,–एम बंध–मोक्षमां परमाणुने द्वैतपणुं छे. स्पर्शगुणनी
चार अंश लूखाश के चीकासवाळा परमाणु साथे बे अंशवाळो परमाणु बंधाय, त्यां ते चार अंशवाळा
परमाणुने ‘बंधक’ (बंध करनार) कहेवाय छे; ने अन्य परमाणुथी ते छूटो पडे त्यारे अन्य परमाणुने ‘मोचक’
(मुक्त करनार) कहेवाय छे. ए रीते परमाणुने बंध–मोक्षमां अन्य परमाणुनी अपेक्षा आवती होवाथी
व्यवहारनये द्वैतपणुं छे. तेम आत्मानी अवस्थामां पोतानी लायकात अनुसार बंध–मोक्ष थाय छे, त्यां ‘आत्मा
बंधायो अने मुक्त थयो’ एम कहेवामां कर्मथी बंधायो ने कर्मथी छ्रूटयो–एवी कर्मनी अपेक्षा लेतां द्वैतपणुं आवे
छे एटले आत्मा व्यवहारनये द्वैतने अनुसरे छे–आवो आत्मानो एक धर्म छे.
तो निमित्त तरीके पुद्गलनी पर्यायमां केवो उत्कृष्टधर्म छे ते बताव्युं छे. पण आ तरफ जीवनो उत्कृष्टस्वभाव
केवळज्ञानसामर्थ्यथी भरेलो छे–तेनी प्रतीत करे तो ज पुद्गलना