शुद्धभावसिवाय बाह्यलिंग के व्रतादि शुभराग ते कोई मोक्षनुं साधन नथी. बाह्यलिंग के शुभराग ते साधन वडे
कांई भगवान मोक्ष पाम्या नथी तेम ज तेने भगवाने मोक्षनुं साधन कह्युं नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्ध
वीतरागीभाव ते ज परमार्थ–एकमात्र–मोक्षनुं साधन छे एम भगवाने कह्युं छे. माटे हे मोक्षना पंथी! आम
जाणीने तुं प्रयत्नवडे ते शुद्धभावने अंगीकार कर.
थाय–एम कदी बनतुं नथी. माटे, श्रीमद् राजचंद्रजीए पण कह्युं छे के–‘जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ.’
थाय छे–ए वात तो एम ज छे,–पण ते क्रमबद्धपर्याय शुं पुरुषार्थ वगर थाय छे? भाई, क्रमबद्धपर्यायनो साचो
निर्णय पण ज्ञानस्वभावसन्मुखना पुरुषार्थ वडे ज थाय छे, ने मोक्षनो मार्ग पण ते ज प्रयत्नपूर्वक साध्य छे. माटे
आचार्यभगवान कहे छे के हे भव्य! हे मोक्षार्थी बीजी बधी वातो छोडीने पहेलां तुं भावने जाण अने तेनो उद्यम
कर. मोक्षना कारणभूत भावो शुं छे तेने ओळख. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र ए त्रणेय वीतरागी
शुद्धभाव छे ने ते भाव ज मोक्षनुं कारण छे, ते सिवाय बहारमां शरीरनी नग्नदशा के शुभराग ते कांई मोक्षनुं
कारण नथी;–एम जाणीने....प्रयत्नवडे जाणीने, तुं ते सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोनो उद्यम कर; सर्व उद्यम वडे तुं
आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने आराध,–ते ज मुक्तिपुरीनो पंथ छे.
एवा सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावोने प्रथम जाणवानुं कह्युं. अने प्रयत्नथी जाणवानुं कह्युं.
अंर्तमुख थईने शुद्धआत्मद्रव्यने जाणतां, तेना आश्रये प्रगटेली शुद्धपर्याय पण जणाई जाय छे; आ रीते, प्रयत्न
वडे द्रव्य सन्मुख थईने शुद्धभाव प्रगट कर एवो उपदेश छे, अने ते शुद्धभाव प्रगट करीने तेने ज तुं मोक्षनुं परमार्थ
कारण जाण. शुद्धद्रव्यस्वभावनी सन्मुखना प्रयत्न वगर शुद्धभाव थतो ज नथी, तो तेनुं ज्ञान कयांथी थाय? ज्यां
अंतर्मुख प्रयत्नथी द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थईने तेनुं ज्ञान कर्युं त्यां, द्रव्यना आश्रये प्रगटेलां शुद्धभावनुं ज्ञान पण
भेगुं थई ज जाय छे, केमके शुद्धपरिणाम थया ते द्रव्य साथे अभेद छे. आ रीते शुद्धभावनी ओळखाण पण द्रव्यना
ज आश्रये थाय छे, एकली पर्यायना लक्षे शुद्धभावनुं ज्ञान थतुं नथी.
हे शिवपुरीना पथिक! स्वभावसन्मुख थईने प्रयत्न वडे शुद्धभावने तुं जाण. पहेलो आ ज प्रयत्न कर. आ प्रयत्न वडे
ज मोक्षनी सिद्धि छे. आवा प्रयत्न विना द्रव्यलिंग धारे तो पण मोक्षनी सिद्धि थती नथी. अरे जीव! सम्यग्दर्शनादि
शुद्धभाव वगरनुं द्रव्यलिंग तो तें अनंतवार धारण कर्युं, तेनाथी कांई ज साध्य नथी.