“आत्मा कोण छे ने कई रीते पमाय?”
(२प)
ॐ
[श्री प्रवचनसारना परिशिष्टमां आचार्यदेवे ४७ नयोथी आत्मद्रव्यनुं वर्णन कर्युं छे
तेना उपर पू. गुरुदेवना विशिष्ट अपूर्व प्रवचनोनो सार.]
(अंक १४४ थी चालु)
[नोंधः आत्मधर्मना पाछला अंकोमां (नं. १४१ थी १४४ सुधीना अंकोमां)
आ लेखमाळानो लेखांक नंबर छापवामां भूल थई गई छे, तेमां अनुक्रमे नं. १९ थी
२३ सुधी छपायेल छे तेने बदले सुधारीने नं. २० थी २४ सुधी समजवा.]
‘हे भगवान! आत्मा केवो छे ने कई रीते तेनी प्राप्ति थाय छे? ते समजावो,’
–एम आत्मार्थी शिष्य पूछे छे; एवा शिष्य उपर परम अनुग्रह करीने आचार्यभगवान
आत्मानुं स्वरूप अने तेनी प्राप्तिनो उपाय बतावे छे–
[४६] अशुद्धनये आत्मानुं वर्णन
अशुद्धनये जोतां, घट अने रामपात्रथी विशिष्ट माटीमात्रनी माफक, आत्मद्रव्य सोपाधि स्वभाववाळुं छे.
जेम माटीमां घडो, रामपात्र वगेरे अवस्थाओ थाय छे ते तेनो एकरूप भाव नथी ते अपेक्षाए ते
उपाधिभाव छे; तेम आत्मानी अवस्थामां जे विकारीभावो थाय छे ते तेनो एकरूप स्वभाव नथी पण उपाधिभाव
छे, अशुद्ध छे. पुद्गलमां तो घडो वगेरे जुदी जुदी अवस्था थया करे एवो तेनो स्वभाव छे, पण आत्मानी
पर्यायमां जे अशुद्धता थाय छे ते कायमी थया करे एवो तेनो स्वभाव नथी, एटले अशुद्धता तेनो कायमी स्वभाव
नथी पण उपाधिभाव छे. छतां, ते उपाधिभावने पण एक समयपुरती पर्यायमां आत्माए पोते धारण करी राख्यो
छे तेथी ते पण आत्मानो एक धर्म छे, अने ते धर्मनी अपेक्षाए जोतां आत्मा सोपाधिस्वभाववाळो छे. अहीं
‘सोपाधिस्वभाव’ कह्यो ते त्रिकाळी स्वभाव न समजवो पण अशुद्धपर्याय पुरतो क्षणिकस्वभाव समजवो. ज्ञानी
जाणे छे के आ अशुद्धता छे ते मारी पर्यायमां थाय छे, एटले अशुद्धनयथी हुं उपाधिवाळो–अशुद्ध छुं.
ध्यान राखजो, के अहीं अशुद्धनये आत्मानुं वर्णन करे छे तेमां पण शुद्धचैतन्यमात्र आत्मद्रव्यनी द्रष्टि
कराववी ते ज तात्पर्य छे.–कई रीते? जुओ आ अशुद्धनयथी अशुद्धता देखाय छे ते तो एक क्षणिक धर्म छे अने
आत्मद्रव्य तो एक साथे अनंतधर्मवाळुं छे, अनंतधर्मोनी
ः १२ः आत्मधर्मः १४प