जेनी द्रष्टि शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा उपर होय. ‘अशुद्धनय’ ते पोते कांई अशुद्धता नथी, ते पोते तो श्रुतज्ञाननुं एक
निर्मळ पडखुं छे.
उपाधिने जाणती वखते निरुपाधिक स्वभावनुं पण अंशे परिणमन तेने वर्ते छे; साधकने एकली अशुद्धता ज नथी
परिणमती, अशुद्धता वखते अंशे शुद्धता पण भेगी ज परिणमे छे अने तेने सम्यक् अनेकान्त तथा नय होय छे. जे
जीवने पोतामां एकली अशुद्धतानुं ज परिणमन भासे ने शुद्धता जरापण न भासे तेने तो आवो अशुद्धनय पण
होतो नथी, ते तो मिथ्याद्रष्टि छे, मिथ्याद्रष्टिने एक पण नय साचा होता नथी.
अज्ञानीनो उपाधिभाव छे. ते मिथ्यामान्यता टळ्या पछी अस्थिरताथी जे क्रोधादिभावो थाय छे ते पण उपाधिभाव
छे. ते उपाधिभाव पण आत्मामां थाय छे एम अशुद्धनयथी ज्ञानी जाणे छे. अहीं नयनी वात छे, नय ज्ञानीने ज
होय छे; ने ज्ञानीने मिथ्यात्वनो उपाधिभाव तो थतो ज नथी. मिथ्यात्व सिवायना जे रागादि उपाधिभाव थाय छे
ते कोई परने लीधे नथी पण पोतानी पर्यायनो तेवो स्वभाव छे एम धर्मी जाणे छे. द्रव्यना शुद्धस्वभावना
ज्ञानपूर्वक पर्यायनी अशुद्धताने जाणे छे. आत्मानी पर्यायमां जे विकारी भावो थाय छे ते तेनो एक समयनो
उपाधिभाव छे, ते उपाधिभाव परमां नथी तेम ज परने लीधे नथी, पण आत्मानी पर्यायनो तेवो धर्म छे.
उपाधिभाव थाय तेवो धर्म जो आत्मानो पोतानो न होय तो बीजा अनंता परद्रव्यो भेगा थईने पण तेनामां
उपाधिभावनी उत्पत्ति न करावी शके. निगोदथी मांडीने चौदमा गुणस्थानना अंत सुधी जे उपाधिभाव विकारभाव–
उदयभाव–संसारभाव छे तेने ते–ते पर्यायमां आत्मा पोते धारी राखे छे तेथी शुद्धनयथी ते पण आत्मानो धर्म छे,
ते त्रिकाळीस्वभाव नथी तेम ज परने लीधे पण नथी. लक्ष्मी–शरीर–स्त्री पुत्र–घरबार–दुकान वगेरे परचीजनी
उपाधि आत्मामां नथी, परनी उपाधिवाळो आत्मा नथी, पण पोतानी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते विकारनी
उपाधिवाळो आत्मा छे. ‘उपाधि’ कहेतां ज ते कायमी मूळस्वभाव नथी ए वात तेमां आवी जाय छे. पर्यायमां एक
समयनी उपाधि छे पण शुद्धनयथी अंतर्मुख स्वभावने जोतां तेमां उपाधि नथी. आ रीते बंने पडखामांथी
आत्मद्रव्यने जाणवुं अने ते जाणीने शुद्धता तरफ वळवुं तेनुं नाम धर्म छे. त्रिकाळ निरुपाधि एवुं शुद्धद्रव्य, अने
क्षणिकउपाधिरूप अशुद्धता ए बंनेनी यथार्थ ओळखाण थतां, शुद्धद्रव्यनी द्रष्टिथी पर्यायनो उपाधिभाव टळतो जाय
छे, ने शुद्धता थती जाय छे.
पण बीजा शुद्धपडखानुं ज्ञान धर्मीने वर्ते छे. अनंतधर्मवाळा शुद्धआत्मद्रव्यना लक्षे उपाधिस्वभावनुं यथार्थ ज्ञान
थाय छे, एकली उपाधिना ज लक्षे उपाधिनुं ज्ञान यथार्थ थतुं नथी. पण एकांत अशुद्धनय थई जाय छे.
छे. विकार एक समय पुरतो आत्माए पोते धारी राख्यो छे. जो तेने न जाणे तो पुरी वस्तुनुं प्रमाणज्ञान थाय नहि
एटले सम्यग्ज्ञान थाय नहि.
कारतकः २४८२