Atmadharma magazine - Ank 145
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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नथी मानतो ने परने लीधे उपाधि माने छे ते खरेखर भगवाननी के संतोनी आज्ञा मानतो नथी. पंचमकाळमां
जन्मेलो कोई जीव ते भवे केवळज्ञान पामे–एम कदी न बने,–पण तेनुं कारण? कांई पंचमकाळने लीधे केवळज्ञान
नथी अटकयुं, परंतु जीवनी पोतानी पर्यायमां ते प्रकारना उपाधिभावने लीधे ज केवळज्ञान अटकयुं छे.
वळी, नरकगतिनुं आयुष्य जेने बंधायुं होय तेने पंचमगुणस्थान आवे नहि, तेम ज जुगलियामां,
देवगतिमां के नरकमां सम्यग्दर्शन थाय पण व्रतादि न थाय–पंचम गुणस्थान न थाय; त्रीजी नरक सुधीथी नीकळीने
मनुष्य थयेलो जीव ज तीर्थंकर थई शके, त्यारपछी चोथी नरकथी नीकळेलो जीव केवळज्ञान पामी शके पण तीर्थंकर न
थाय; पांचमी नरकथी नीकळेलो जीव मुनिदशा पामे पण केवळज्ञान न पामी शके; छठ्ठी नरकथी नीकळेलो जीव
पांचमा गुणस्थाननी श्रावकदशा पामे पण मुनिदशा न पामी शके, सातमी नरकथी नीकळेलो जीव मनुष्य न थाय–
आवो नियम छे.–पण तेनुं कारण? शुं कर्मने लीधे के पूर्व पर्यायने लीधे तेम थाय छे? ना, परंतु ते ते जीवोने ते
पर्यायमां ज तेवो उपाधिभावरूप धर्म छे, अने ते कारणे ज तेना केवळज्ञानादि अटकया छे. समकीति जाणे छे के मारी
पर्यायमां ज आवो उपाधिभाव छे तेथी ज केवळज्ञान, मुनिदशा के श्रावकदशा अटकी छे, कोई परने कारणे मारी दशा
अटकी नथी, तेम ज परने कारणे उपाधिभाव नथी. क्षणिक उपाधि वखते पण शुद्धनयथी तो हुं निरुपाधिक
शुद्धस्वभाव छुं–एवुं भान धर्मीने खसतुं नथी. पूर्वना तेवा ऊंधा संस्कार छे माटे अत्यारे उपाधिभाव छे–एम कहेवुं
ते पूर्वपर्यायना उपचारनुं कथन छे, खरेखर वर्तमान पर्याय ज तेवा उपाधिस्वभावे थई छे एटले ते पर्यायनो ज
तेवो धर्म छे. ए ज प्रमाणे, सिद्धदशा थतां जे ऊर्ध्वगमन थाय छे ते पूर्वे प्रयोगने लीधे थाय छे एम कहेवुं ते पण
उपचारथी छे, खरेखर तो तेनी ते समयनी पर्यायनो ज तेवो ऊर्ध्वगमनस्वभाव छे. आ स्वभाव ऊर्ध्वगमन छे ते
उपाधिभाव नथी पण पर्यायनो निरुपाधिक भाव छे. धर्मी जीव पोतानी पर्यायना उपाधिधर्मने जाणतो होय के
निरुपाधिस्वभावने जाणतो होय, पण शुद्धचैतन्यद्रव्य उपरथी तेनी द्रष्टि खसती नथी.
–अहीं ४६ मां अशुद्धनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं.
[४७] शुद्धनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य शुद्धनये केवळ माटीमात्रनी माफक, निरुपाधिस्वभाववाळुं छे. जेम एकली माटीनो पिंड पडयो
होय ते केवळ माटी ज छे, तेमां कोई उपाधि नथी, तेम शुद्धनयथी जोतां निरुपाधिक एकरूप स्वभावी आत्मा छे,
तेमां कोई उपाधि नथी. क्षणिक पर्यायमां अशुद्धता छे ते अपेक्षाए उपाधि छे पण सामान्यस्वभावनी अपेक्षाए
आत्मामां उपाधि नथी. उपाधि वखतेय आ निरुपाधिक स्वभाव आत्मामां छे. एक समये आत्मा आवा अनेक
धर्मोवाळो छे. शुद्धचैतन्यमात्र आत्माने द्रष्टिमां लेवो ते आ बधा धर्मोने जाणवानुं फळ छे.
पर्यायमां क्षणिक उपाधि छे ते ज क्षणे साधकने निरुपाधि शुद्धस्वभावनुं भान छे, ने पर्यायमां पण अंशे
निरुपाधिकपणुं प्रगटयुं छे, एटले साधकने पर्यायमां पण उपाधिपणुं ने निरुपाधिपणुं बंने धर्मो एक साथे परिणमे
छे. जो तेम न होय ने एकली उपाधि ज होय तो एकांत थई जाय छे.
अहीं अनेक प्रकारे आत्माना धर्मोनुं वर्णन करीने आत्मद्रव्यनी ओळखाण करावी छे. आ बधा धर्मो
आत्माना पोताना छे, ते कोई परने लीधे नथी. गमन, स्थिरता, अवगाहना, परिणमन ते बधा धर्मो पोताना छे.
धर्म, अधर्म, आकाश ने काळ ते निमित्त छे परंतु ते गति वगेरे धर्मो कांई निमित्तना नथी तेम ज निमित्तने लीधे
नथी, ते धर्मो तो पोताना ज छे. आम अनंतधर्मोने धरनार स्वयंसिद्ध आत्माने जाणे ते ज्ञान सम्यक् छे.
भगवान आत्मा अनंतधर्मना पिंडरूप शुद्ध चैतन्यद्रव्य छे, वचनथी तो तेना अमुक धर्मोनुं वर्णन थई शके.
अहीं आचार्यदेवे ४७ धर्मो द्वारा आत्मानुं वर्णन कर्युं.
ः १४ः
आत्मधर्मः १४प