जन्मेलो कोई जीव ते भवे केवळज्ञान पामे–एम कदी न बने,–पण तेनुं कारण? कांई पंचमकाळने लीधे केवळज्ञान
नथी अटकयुं, परंतु जीवनी पोतानी पर्यायमां ते प्रकारना उपाधिभावने लीधे ज केवळज्ञान अटकयुं छे.
मनुष्य थयेलो जीव ज तीर्थंकर थई शके, त्यारपछी चोथी नरकथी नीकळेलो जीव केवळज्ञान पामी शके पण तीर्थंकर न
थाय; पांचमी नरकथी नीकळेलो जीव मुनिदशा पामे पण केवळज्ञान न पामी शके; छठ्ठी नरकथी नीकळेलो जीव
पांचमा गुणस्थाननी श्रावकदशा पामे पण मुनिदशा न पामी शके, सातमी नरकथी नीकळेलो जीव मनुष्य न थाय–
आवो नियम छे.–पण तेनुं कारण? शुं कर्मने लीधे के पूर्व पर्यायने लीधे तेम थाय छे? ना, परंतु ते ते जीवोने ते
पर्यायमां ज तेवो उपाधिभावरूप धर्म छे, अने ते कारणे ज तेना केवळज्ञानादि अटकया छे. समकीति जाणे छे के मारी
पर्यायमां ज आवो उपाधिभाव छे तेथी ज केवळज्ञान, मुनिदशा के श्रावकदशा अटकी छे, कोई परने कारणे मारी दशा
अटकी नथी, तेम ज परने कारणे उपाधिभाव नथी. क्षणिक उपाधि वखते पण शुद्धनयथी तो हुं निरुपाधिक
शुद्धस्वभाव छुं–एवुं भान धर्मीने खसतुं नथी. पूर्वना तेवा ऊंधा संस्कार छे माटे अत्यारे उपाधिभाव छे–एम कहेवुं
ते पूर्वपर्यायना उपचारनुं कथन छे, खरेखर वर्तमान पर्याय ज तेवा उपाधिस्वभावे थई छे एटले ते पर्यायनो ज
तेवो धर्म छे. ए ज प्रमाणे, सिद्धदशा थतां जे ऊर्ध्वगमन थाय छे ते पूर्वे प्रयोगने लीधे थाय छे एम कहेवुं ते पण
उपचारथी छे, खरेखर तो तेनी ते समयनी पर्यायनो ज तेवो ऊर्ध्वगमनस्वभाव छे. आ स्वभाव ऊर्ध्वगमन छे ते
उपाधिभाव नथी पण पर्यायनो निरुपाधिक भाव छे. धर्मी जीव पोतानी पर्यायना उपाधिधर्मने जाणतो होय के
निरुपाधिस्वभावने जाणतो होय, पण शुद्धचैतन्यद्रव्य उपरथी तेनी द्रष्टि खसती नथी.
तेमां कोई उपाधि नथी. क्षणिक पर्यायमां अशुद्धता छे ते अपेक्षाए उपाधि छे पण सामान्यस्वभावनी अपेक्षाए
आत्मामां उपाधि नथी. उपाधि वखतेय आ निरुपाधिक स्वभाव आत्मामां छे. एक समये आत्मा आवा अनेक
धर्मोवाळो छे. शुद्धचैतन्यमात्र आत्माने द्रष्टिमां लेवो ते आ बधा धर्मोने जाणवानुं फळ छे.
छे. जो तेम न होय ने एकली उपाधि ज होय तो एकांत थई जाय छे.
धर्म, अधर्म, आकाश ने काळ ते निमित्त छे परंतु ते गति वगेरे धर्मो कांई निमित्तना नथी तेम ज निमित्तने लीधे
नथी, ते धर्मो तो पोताना ज छे. आम अनंतधर्मोने धरनार स्वयंसिद्ध आत्माने जाणे ते ज्ञान सम्यक् छे.
ः १४ः