Atmadharma magazine - Ank 145
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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आ धर्मोमांथी जेटला उपाधिरूप अर्थात् अशुद्धता रूप छे ते धर्मो सिद्धदशामां नथी होता, ने जे स्वाभाविक धर्मो छे
ते बधा सिद्धदशामां पण होय छे. सिद्धभगवानने कांई नयथी जोवानुं रह्युं नथी, तेमने कांई साधवानुं बाकी नथी,
अहीं तो साधकजीव पोते पोताना आत्माने प्रमाण अने नय वडे साधे छे तेनी वात छे.
जे शिष्य जिज्ञासु थईने आत्मानुं स्वरूप समजवा मांगे छे तेणे पूछयुं हतुं के हे प्रभो! आ आत्मा कोण
छे? एवा जिज्ञासु शिष्यने भगवान आचार्यदेवे प्रथम तो एम बताव्युं के आत्मा खरेखर चैतन्यसामान्यवडे
व्याप्त अनंतधर्मोनुं अधिष्ठाता एक द्रव्य छे. ते श्रुतज्ञान प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे जणाय छे. एटलुं कहीने पछी
४७ नयो द्वारा आत्मानुं स्वरूप समजाव्युं. शिष्यने आ वात समजवानी झंखना छे, एटले आ वात वेठथी नथी
सांभळतो पण अंतरमां आत्माने समजवानी धगशथी सांभळे छे, एवा शिष्यने आ समजाव्युं छे.
–अहीं ४७ मा शुद्धनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं.
(हवे, जे नयो अपेक्षासहित छे ते ज नयो सम्यक् छे ने अपेक्षावगरना एकांत नयो ते मिथ्या छे– ए वात
कहेशे. त्यारपछी ‘शुद्धचैतन्यमात्र निज आत्मद्रव्यने अंतरमां देखवुं ते ज तात्पर्य छे’–एम बतावशे. ए रीते
आत्मद्रव्यनुं कथन पूरुं करीने पछी तेनी प्राप्तिनी रीत कहेशे.
सुखना शोधकने.......
रे जीव! तुं विचार तो कर के जे सुखने तुं शोधी
रह्यो छे ते सुख तो तारामां होय के बहारमां? पोतानुं
सुख तो पोताथी जुदी कोई पण वस्तुमां न होय.
बहारमां कयांय तारुं सुख नथी, तारुं सुख तारामां ज
भर्युं छे; ते सुखना अनुभव माटे तारा
वास्तविकस्वरूपने तुं ओळख.
– पू. गुरुदेव
सम्यग्द्रष्टि निःशंक अने निर्भय छे
ज्ञानीनुं सम्यग्दर्शन कोई संयोगना अवलंबने
नथी थयुं, पण स्वभावना अवलंबने ज थयुं छे; तेथी
कोई पण संयोगोना भयथी तेओ सम्यक्त्वथी च्युत
थता ज नथी, जे स्वरूपना अवलंबने सम्यक्त्व थयुं छे
ते स्वरूपना अवलंबने पोताना सम्यक्त्वमां ते निःशंक
अने निर्भयपणे परिणमे छे. माटे सम्यग्द्रष्टि निःशंक
अने निर्भय छे.
– पू. गुरुदेव.
कारतकः २४८२ ः १पः