Atmadharma magazine - Ank 145
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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“ई च्छा मि”
‘हे संत धर्मात्मा! हुं तने ईच्छुं छुं’ एटले के जेवा शुद्धात्माने आप साधी
रह्या छो तेवा शुद्धात्माने हुं ईच्छुं छुं–तेने हुं चाहुं छुं; आ रीते शुद्ध आत्मानी रुचि
करवी–चाहना करवी एवो ‘ईच्छामि’ नो अर्थ छे.
माटे
हे भव्य जीवो! सर्व प्रकारना उद्यम वडे प्रयत्न करीने आत्माने जाणो.......ने तेनी
श्रद्धा करो.....के जेथी आत्मानी मुक्ति थाय आवो श्री गुरुओनो उपदेश छे.
[–श्री सुत्रप्राभृत गा. १३ थी १६ उपरना पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी]
अष्टप्राभृतनी तेरमी गाथामां आचार्य कुंदकुंद भगवान कहे छे के गृहस्थपणामां वस्त्रादि सहित होवा छतां
पण सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा “ईच्छाकार” करवा योग्य छे.
अहीं धर्मात्मा प्रत्ये “ईच्छाकार” करवानुं कह्युं तेमां घणुं रहस्य छे. “ईच्छामि” एटले के हुं ईच्छुं छुं.–शुं
ईच्छुं छुं? हे संतधर्मात्मा!! जेवो स्वभाव आपने प्रगटयो तेवा स्वभावने ज हुं ईच्छुं छुं; हुं पुण्यने नथी ईच्छतो,
रागने नथी ईच्छतो, पण रागरहित शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावनां जेवा सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान आपना आत्मामां प्रगटया छे
तेवा श्रद्धा–ज्ञानने हुं ईच्छुं छुं.
आ रीते धर्मात्मा प्रत्ये “ईच्छामि” करनारनी रुचि रागमांथी हटी गई छे ने तेनी रुचिनुं वलण स्वभाव
तरफ वळी गयुं छे. स्वभावनो ईच्छक थईने धर्मात्मा प्रत्ये “इच्छामि” कहे छे. “ईच्छामि” कहीने धर्मात्मानो जेणे
आदर कर्यो तेणे खरेखर तो रागरहित पोताना स्वभावनो ज आदर कर्यो छे. अहो! गृहस्थ धर्मात्मा प्रत्ये
“ईच्छामि” करनारनी पण केटली जवाबदारी छे!–धर्मात्मा प्रत्ये ‘ईच्छामि’ करनार जीवने रुचिनुं वलण ज पलटी
गयुं छे.
जिज्ञासुजीव गृहस्थ धर्मात्मा प्रत्ये “ईच्छामि” करे छे, एटले के हे संत! हुं तने ईच्छुं छुं, तारा आत्मानो
आदर करुं छुं, तारा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानने हुं ईच्छुं छुं, तेने मारी अनुमोदना छे; एटले के तेथी विरुद्धभावने हुं
ईच्छतो नथी. आवो “ईच्छामि” नो अर्थ छे. आवा भावसहित ईच्छामि करे तो ज ते साचुं ईच्छामि छे. एटले
खरेखर तो आत्मानी रुचि करवी–आत्माने ज चाहवो–तेनी ज लगनी करवी एवो ‘ईच्छामि’ नो अर्थ छे. जेने
आत्मानी आवी रुचि नथी तेने तो धर्मनुं कांई आचरण साचुं होतुं नथी.
‘अहो! धर्मात्माओ! जेवो शुद्धचिदानंद आत्मा तमे साधी रह्या छो ते ज शुद्धचिदानंद आत्माने हुं ईच्छुं छुं,
तेने ज हुं चाहुं छुं; रागने के पुण्यने हुं चाहतो नथी.’–आम स्वभावनी भावना वडे सम्यग्दर्शन प्रगट करे ने पछी
अमुक राग तूटतां व्रत थाय त्यारे
ः १६ः
आत्मधर्मः १४प