श्रावकपणुं कहेवाय. जेने हजी तो आत्मानी रुचि ज नथी ने रागनी रुचि छे ते जीवने व्रतादि कांईपण आचरण
यथार्थ होतुं नथी, तेने मुनिदशा के श्रावकदशा होती नथी. धर्मनुं मूळ तो सम्यग्दर्शन छे, ने ते सम्यग्दर्शन शुद्ध
आत्मस्वरूपनी चाहना वडे थाय छे, जगतनी इष्टता छोडीने, शुद्ध आत्माने ज इष्ट करे–तेनी ज भावना करे तो ज
सम्यग्दर्शन थाय छे, अने सम्यग्दर्शनपूर्वक ज श्रावकनां के मुनिनां व्रतादि होय छे.
माटे आचार्यदेव उपदेश आपे छे के–हे भव्य जीवो! तमे प्रयत्नपूर्वक आत्माने ओळखो. प्रयत्नपूर्वक
आत्मानी श्रद्धा करो; जेनाथी आत्माने मुक्ति थाय एवां सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान तमे प्रयत्नपूर्वक करो, प्रयत्नपूर्वक
आत्माने ओळखो. जुओ, आचार्यभगवाने प्रयत्ननी चोक्खी वात करी छे; आत्माना सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–
प्रयत्नपूर्वक ज थाय छे. माटे सर्व प्रकारनां उद्यमथी प्रयत्न करीने स्वरूपनी रुचि करो.....ज्ञान करो......श्रद्धा करो, के
जेथी आत्माने मोक्षनी प्राप्ति थाय.
घणा जीवो पूछे छे के अमारे शुं करवुं? तो आचार्यदेव अहीं ते वात बतावे छेः हे भव्य! तारो बधो उद्यम
आत्माना स्वरूपने जाणवामां रोक. आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे तेने प्रयत्नथी जाण. बीजा आडंबरथी शुं प्रयोजन
छे? श्रद्धा–ज्ञान वगरनुं आचरण ते कांई आत्माने हितरूप नथी. माटे जेनाथी आत्मानुं हित थाय एवुं करो......
सर्व प्रयत्नने आ तरफ रोकीने आत्माना स्वरूपने ओळखो अने श्रद्धा करो. के जेथी आत्मानुं अपूर्व हित थाय.–
आवो श्री गुरुओनो उपदेश छे.
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* ज्ञाननो स्वभाव अने स्वज्ञेयनो महिमा *
एककोर पोतानो आत्मा ते स्वज्ञेय अने तेना सिवाय लोक–अलोकना अनंत
पदार्थो ते परज्ञेयो, अने ते स्व–पर बंने ज्ञेयोने जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव, छतां
स्वज्ञेयनो महिमा मोटो छे. अंतर्मुख थईने स्वज्ञेयना ज्ञानपूर्वक ज परज्ञेयनुं ज्ञान
यथार्थ थाय छे; माटे स्वज्ञेयने जाणनारी ज्ञानपरिणति महिमावंत छे......भगवती छे.
श्री प्रवचनसार गा. १२७ उपरना प्रवचनमांथी.
आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु छे, ज्ञाननो स्वभाव जगतना स्वपर समस्त ज्ञेयोने जाणवानो छे. जगतमां
जीव अने अजीव समस्त पदार्थो ते ज्ञानना ज्ञेयो छे.
ज्ञेयोमां आ जीवतत्त्व केवुं छे? के चेतनास्वरूप छे. ते चेतना ‘भगवती’ छे–एटले के महिमावंत छे, अने
आत्माना बधा धर्मोमां ते भगवती चेतना व्यापेली छे. जीवद्रव्य सदाय अविनाशी चेतनास्वरूप तथा चेतनानी
परिणतिस्वरूप छे.
परथी भिन्न अने पोताना शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायथी अभेद एवा शुद्ध आत्मद्रव्यने ज्ञेय बनाव्युं त्यारे ज
ज्ञान सम्यक् थयुं. शुद्ध आत्माने ज्ञेय बनाव्या वगर सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. ने स्वज्ञेयना ज्ञान वगर परज्ञेयनुं ज्ञान
पण साचुं नथी.
ज्ञाननो स्वभाव स्वपरने जाणवानो होवा छतां, जे ज्ञान अंतरमां वळीने स्वज्ञेयने तो जाणतुं नथी ने
बहारमां एकला परज्ञेयने–शरीर तथा रागादिने–ज जाणवामां रोकाय छे ने तेने ज ज्ञाननुं स्वरूप माने छे तो ते
ज्ञान मिथ्या छे, ते असर्वांशने सर्वांश माने छे. सौथी मोटुं–महिमावंत तो स्व–ज्ञेय छे तेना ज्ञान वगर परज्ञेयनुं
ज्ञान पण साचुं नथी.
ज्ञानस्वभाव पोते पोतानुं स्वज्ञेय न थाय त्यां सुधी ज्ञाननुं स्वपरप्रकाशकपणुं खील्युं नथी. स्वभावथी तो
बधाय जीवो स्व पर प्रकाशक ज छे, सिद्धथी मांडीने निगोद, बधाय जीवोनो स्व–पर प्रकाशक ज्ञानस्वभाव छे, पण
अज्ञानीने ते स्वभावनी खबर नथी. अहीं तो, जेने पोताना आवा चेतना स्वभावनी खबर पडी, ने ज्ञानमां
पोताना आत्माने ज्ञेय बनाव्यो त्यां भगवती चेतनापरिणतिरूप निर्मळपर्याय प्रगटी. जेणे अंतर्मुख थईने
स्वतत्त्वने ज्ञेय
कारतकः २४८२ ः १७ः