Atmadharma magazine - Ank 145
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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भगवान आत्मानुं अपूर्व स्वागत
[सौराष्ट्रमां पुनित विहार दरमियान जिनबिंब
प्रतिष्ठाना अनेक मंगल कार्यो करीने पू. गुरुदेव जेठ सुद
छठ्ठना रोज सुवर्णधाममां पधार्या. ते प्रसंगे सुवर्णधाममां पू.
गुरुदेवनुं प्रथम प्रवचन
]
आ समयसारना निर्जरा अधिकारनो १४८ मो श्लोक वंचाय छे–
(स्वागता)
ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्ततयैति ।
रंगयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बाहिर्लूठतीह ।। १४८।।
जे वस्त्र उपर लोधर–फटकडी वगेरे न होय ते वस्त्र उपर रंग चडतो नथी, तेम ज्ञानीने चैतन्य स्वभावनी
अंर्तद्रष्टिमां रागनो अत्यंत अभाव छे तेथी तेने कर्म परिग्रहपणाने धारतुं नथी. आ आत्माने धर्म अने निर्जरा
केम थया तेनी आ वात छे. अनादिथी राग–द्वेषादि विकारीभावो ते हुं एवी स्वभाव अने विभाव वच्चेनी
एकत्वबुद्धि छे ते बंधननुं कारण छे. आत्माने पोताना आत्माना ज अवलंबने बंधन टळे ने शुद्धता प्रगटे छे; आनुं
नाम धर्म छे, आ सिवाय बहारना बीजा कोई साधनथी धर्म थतो नथी.
आ स्वागतनो कलश छे, आत्मानुं स्वागत केम थाय ते कहे छे. हे भगवान आत्मा! तमारामां निर्मळ
शक्ति पडी छे ते व्यक्त थईने पर्यायमां पधारो! आत्माना स्वभावनुं स्वागत करीने तेमां एकाग्रता करतां
निर्मळपर्याय प्रगटे छे. धर्मीने पोताना चिदानंद आत्मस्वभावनो ज रंग लाग्यो छे एटले तेने रागादिभावोनो रंग
लागतो नथी, तेम ज बाह्य देहादिनी क्रियानो पक्कडभाव तेने नथी, जेम वस्त्र उपर फटकडी वगेरे न होय तो तेने
रंग लागतो नथी तेम ज्ञानीधर्मात्माने रागादिनी रुचि छूटी गई छे, ते जाणे छे के मारुं ज्ञानस्वरूप राग साथे
भेळसेळ नथी पण रागथी जुदुं ज छे; आवा भानमां ज्ञानीने चैतन्यथी रुचिनो रंग लाग्यो छे ने रागनो रंग छूटी
गयो छे, तेथी तेने बंधन थतुं नथी पण निर्जरा ज थाय छे. रागमां एकाग्र थईने आत्माना शांत ज्ञानानंद
स्वरूपना रसने जे चूकी जाय छे तेने रागनो रस छे, पण चैतन्यनो रस नथी; हुं रागथी भिन्न ज्ञाताद्रष्टा छुं–एवी
स्वभाव सन्मुख द्रष्टि थई छे त्यां ज्ञानीने रागनो रस ऊडी गयो छे. एक समयमां पूर्ण ज्ञाननो पिंड मारो
चैतन्यस्वभाव छे–एवी रुचि थतां स्वभावनी शुभता तरफ ज्ञान वळ्‌युं; अनादिथी ज्ञानने परसन्मुख ज करीने
परने ज जाणवामां रोकातो अने ज्ञानने रागमां ज एकाग्र करतो, तेने बदले हवे भेदज्ञान थयुं के परथी ने रागथी
भिन्न हुं तो ज्ञानानंद स्वरूप छुं.–आवुं भेदज्ञान थतां ज्ञानस्वभावमां ज ज्ञान एकाग्र थयुं, ने रागादिनो रस छूटी
गयो, तेने क्षणेक्षणे निर्जरा थाय छे एटले के क्षणेक्षणे आत्मानी शुद्धता वधती जाय छे. जुओ, ज्ञानीनुं ज्ञान एकला
परने के रागने ज जाणवामां एकाग्र नथी; रागथी लाभ मानवानी वात तो दूर रही, पण एकला रागने ज
जाणवामां रोकाय ने शुद्धस्वभावने चूकी जाय तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे; तेणे ज्ञानने ज्ञानपणे न राखतां वच्चे
कारतकः २४८२
ः ७ः