मिथ्याद्रष्टि छे. अने जे ज्ञान एकला रागने ज जाणवामां रोकाय पण चिदानंद स्वभाव तरफ न वळे तो तेने पण
मिथ्यात्व छे. आत्माना ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टि करतां चैतन्यनी दोलत प्रगटे छे. जे ज्ञान, रागथी पार थईने
चिदानंद स्वभावमां ढळ्युं तेने भगवान निश्चयनय कहे छे. ‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी’ आवी
वस्तुस्थिति छे. तेने बदले अज्ञानी कहे छे के निश्चयनय ते ज्ञान नथी पण जड छे. अरे! केटली विपरीत वात!
आत्माना ज्ञानानंदस्वभाव सन्मुख धर्मनी द्रष्टि पडी छे तेने निश्चयनय कहे छे, अने एवा स्वभावनी द्रष्टिपूर्वकनुं
ज्ञान रागादिने जाणे तेनुं नाम व्यवहारनय छे. निश्चयनय अने व्यवहारनय ते बंने नयो ज्ञानना ज पडखां छे.
अहीं तो कहे छे के जे ज्ञान पोताना स्वभावमां एकाग्र न थतां रागमां एकाग्र थयुं तेने रागनो रस आवे छे, पण
ज्ञानानंदस्वभावनो रस आवतो नथी, ते मिथ्याद्रष्टि छे. जडवस्तुनो स्वाद कांई आत्मामां आवतो नथी, पण जडना
स्वादने जाणतां अज्ञानी पोताना ज्ञानने चूकीने एम माने छे के मने आ पर वस्तुनो स्वाद आवे छे, रागमां
एकाग्र थईने परनो स्वाद आवे छे एम अज्ञानी माने छे, एटले तेनुं ज्ञान रागमां ज अटकयुं छे तेथी तेने
रागादिनो परिग्रह छे. पण ज्ञानीने स्वभाव अने विभावनी एकता तूटी गई छे, चिदानंदस्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीने
रागनो पण परिग्रह नथी, तेथी तेने बंधन थतुं नथी. ज्ञानीने बाह्यमां संयोगो वर्तता होय अने पर्यायमां राग पण
थतो होय, छतां तेनी द्रष्टिमां रागादि साथे कयांय एकपणुं रह्युं नथी तेथी तेने रागनो परिग्रहभाव नथी, तो पछी
जडनो परिग्रह ज्ञानीने केवो? देह–मन–वाणी वगेरे जडनी क्रियाने तो अज्ञानी पण करी शकतो नथी. कोई एम कहे
के ‘देहादिकनी क्रिया करवानी ज्ञानी ना नथी कहेता, पण समजीने करवुं एम कहे छे.’–तो आम कहेनार पण
ज्ञानीनी वातने समज्यो नथी. भाई! आत्मा देहनी क्रिया करी शके ज नहि. समज्या पहेलां के समज्या पछी, कोई
पण आत्मा देहादिकपरनी क्रियाने करी शकतो ज नथी. अज्ञानी रागनी क्रियामां एकाग्र थाय छे ते अधर्म छे, अने
ज्ञानी रागथी भिन्न पोताना ज्ञानानंद स्वरूपने जाणीने तेमां एकाग्रता वडे ज्ञाननी क्रिया करे छे,–ते धर्मनी क्रिया छे.
आ सिवाय जडनी क्रिया तो कोई करी शकतो नथी. ज्ञानीने ज्ञाननो ज रस छे ने रागनो रस ऊडी गयो छे तेथी तेने
रागनो परिग्रह नथी; माटे ज्ञानीने बंधन थतुं नथी पण निर्जरा थाय छे.
लिप्यते सकलकर्मभिरेषः कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ।। १४९।।
एकाग्र कर्युं छे, एटले तेना ज्ञानमां पोताना चिदानंद स्वभावनो रस चढयो छे, ने निजरसथी ज तेने रागनो परिग्रह
छूटी गयो छे. धर्मीने रागमां एकाग्रता नथी, तो कयां एकाग्रता छे? के रागरहित चैतन्यस्वभावनी मुख्यता करीने
तेमां ज धर्मीने एकाग्रता वर्ते छे. मूढ जीव चैतन्यने चूकीने, पुण्यना रागथी लाभ थशे एम मानीने ते रागने
अग्रेसर बनावीने तेमां एकाग्रता करे छे–ते संसारनुं कारण छे. ज्ञानी पोताना ज्ञानानंदस्वभावने एकने ज अग्रेसर
बनावीने तेमां एकाग्रता करे छे, ते मुक्तिनुं कारण छे, पहेलां आ वातनुं श्रवण–मनन करवामां विनय अने रुचि पण
जेने न आवे ते निर्णय करीने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान तो कयांथी करशे? पहेलां विनयथी सत्समागमे श्रवण–
मनन करीने निर्णय करे–रुचि करे, तेने अंर्तद्रष्टिनुं परिणमन थतां सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय. आ सिवाय
बीजा कोई उपायथी धर्मनी शरूआत थती नथी. जेने आत्माना चिदानंदस्वभावनी द्रष्टि प्रगटी छे एवा ज्ञानी
निजरसथी ज रागना अभावरूप स्वभाववाळो छे. अज्ञानीने स्वभावनी द्रष्टिनो अभाव छे, ने रागमां एकाग्रता छे
तेथी तेने बंधन थाय छे, अने ज्ञानीने स्वभावनी द्रष्टिमां राग साथे एकतानो अभाव छे, तेथी तेने बंधन थतुं नथी.
रागरहित ज्ञानानंदस्वरूपनी द्रष्टि आत्मामां प्रगट करवी तेनुं नाम धर्म छे. जेणे आवी द्रष्टि प्रगट करी तेणे पोते
पोताना आत्मानुं स्वागत कर्युं. अनादिथी रागनो आदर करीने भगवान आत्मानो अनादर करतो, तेने बदले हवे
रागथी भिन्न चिदानंद स्वभावनी सन्मुख थईने भगवान आत्मानुं अपूर्व स्वागत कर्युं; आ मांगळिक छे.
ः ८ः