Atmadharma magazine - Ank 146
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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वर्तमान छे, पण ते आंखथी न देखाय, मनना विकल्पथी पण ते ख्यालमां न आवे; अंतरनी सूक्ष्म द्रष्टिनो आ
विषय छे. ज्ञानीने उपयोगनुं स्वसन्मुख कार्य प्रगटतां तेना कारणरूप स्वभाव–उपयोग प्रतीतमां आवी जाय छे.
अहीं स्वभाव–उपयोगमां कारण अने कार्य एवा बे भेद पाडया, पण विभावना कारण–कार्यनी वात न
लीधी; केम के विभावनुं कारणपणुं खरेखर आत्माना स्वभावमां छे ज नहि, विकारनो कोई धु्रव–आधार नथी.
आत्मानी कार्य–पर्यायमां शुद्ध अने अशुद्ध एवा बे प्रकार पडे छे, पण कारण परिणति तो शुद्ध ज छे, तेमां शुद्ध ने
अशुद्ध एवा बे प्रकार नथी. अहो! शुद्धतानुं ज कारण थवानो आत्मानो स्वभाव छे, आवा स्वभावने जाणे तो ते
कारणमांथी शुद्ध कार्य प्रगटया विना रहे नहि. कार्य जे केवळज्ञान तेना कारण उपरअहीं जोर देवुं छे, ते कारण उपर
जोर देतां वच्चे साधकदशामां मति–श्रुत वगेरे सम्यक्ज्ञान प्रगटी जाय छे, पण अहीं तो धु्रव–कारण उपर जोर देवुं छे
तेथी तेनी वात आ गाथानी टीकामां न लीधी–आवो टीकानो मर्म छे.
अहीं शुद्धकार्य अने तेनुं कारण बताव्युं. आ कारणने अवलंबता शुद्धकार्य प्रगटये छूटको. वच्चे साधकदशामां
चार ज्ञान प्रगटी जाय छे पण साधकनुं जोर तो कारणस्वभाव उपर ज छे. कुमति–कुश्रुत ने विभंग ए त्रण उपयोग
केवळ विभावरूप छे, ते तो अज्ञानी–मिथ्याद्रष्टिने ज होय छे. पहेलां अज्ञानदशामां ज्यारे कारणस्वभावनुं भान न
हतुं त्यारे एकांतविभावरूप उपयोग हतो, पछी कारणस्वभावनुं भान थतां साधकदशामां सम्यक्मतिश्रुत वगेरे
उपयोग प्रगटयां. पण साधक धर्मात्मानी द्रष्टिनुं जोर तो एकरूप कारणस्वभाव उपर ज छे; ते कारण उपर जोर
आपीने एकाग्र थतां केवळज्ञान थई जाय छे.
आ प्रमाणे दसमी गाथा पूरी थई.
* * *
हवे, जेम जिनमंदिर उपर सोनानो कळश चडावे तेम आ गाथा उपर टीकाकार एक कळश मूके छे–
अथ सकलजिनोक्तज्ञानभेद प्रबुद्ध्वा
परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः
सपदि विशति यत्तच्चिच्चमत्कारमात्रं
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।। १७।।
कारणस्वभावज्ञान अने कार्यस्वभावज्ञान वगेरेनुं घणुं वर्णन कर्युं, तेने जाणवानुं फळ शुं ते अहीं बतावे छे;
जिनेन्द्र कथित समस्त ज्ञानना भेदोने जाणीने जे पुरुष परभावेने परिहरी निजस्वरूपमां स्थित रह्यो थको शीघ्र
चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्वमां पेसी जाय छे–ऊंडो ऊतरी जाय छे, ते पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीनो एटले के
मुक्तिसुंदरीनो वल्लभ थाय छे.
आ कारणस्वभावज्ञान तेमज कार्यस्वभावज्ञान वगेरे भेदो कह्या ते केवा छे?....के जिनेन्द्र कथित छे.
भगवान सर्वज्ञदेव अने तेमना मार्ग सिवाय आ वात बीजे क्यांय होई शके नहि. पोताना स्वभाव उपयोगमां
जेमणे त्रणकाळ त्रणलोकनो पत्तो मेळवी लीधो छे–बधुं प्रत्यक्ष जाणी लीधुं छे एवा भगवान जिनेन्द्रदेवे ज्ञानना
आवा प्रकारो जाणीने कह्या छे; आवा वस्तुस्वभावने जे जाणे तेने परभावोथी भिन्नता ने निजस्वरूपमां लीनता
थया विना रहे नहि.
आत्माना उपयोगमां कार्यस्वभावज्ञान अने कारणस्वभावज्ञान एवा प्रकारोने जाणीने, जे पुरुष
परभावोने परिहरे छे....एटले के कारणस्वभाव सिवाय बीजा कोई पण भावोने परिहरे छे....एटले के
कारणस्वभाव सिवाय बीजा कोई पण भावोने अवलंबतो नथी, ने निजस्वरूपमां स्थिर रहे छे,–‘अहो! आवो
मारो कारणस्वभाव! आवी मारी वस्तु! आवा स्वभावथी वस्तुनी पूर्णता छे’–एम वस्तुस्वभावनो महिमा
लावीने तेमां ठरे छे....स्वभावमां ऊंडो ऊतरी जाय छे....कारणपरमात्मामां ऊंडो ऊतरीने एकदम लीन थई जाय छे
ते जीव साक्षात् परमात्मा थई जाय छे एटले के मुक्तिसुंदरीनो नाथ थई जाय छे.
आ अपूर्व वात छे. सर्वज्ञना मार्गनो आश्रय लईने जे समजे तेने ज आ वात समजाय तेवी छे.
आत्मामां जो विसद्रशरूप सापेक्ष उत्पाद–व्ययरूप पर्यायो ज होय ने सद्रशरूप निरपेक्ष धु्रवपरिणति
(स्वभाव–आकार परिणाम, कारणशुद्धपर्याय–) न होय तो वस्तुनी पूर्णता वर्तमानमां सिद्ध थई शकती नथी. अने
जो वर्तमान व्यक्तरूप विसद्रश पर्यायो न होय तो
मागशरः २४८२
ः २७ः