विषय छे. ज्ञानीने उपयोगनुं स्वसन्मुख कार्य प्रगटतां तेना कारणरूप स्वभाव–उपयोग प्रतीतमां आवी जाय छे.
आत्मानी कार्य–पर्यायमां शुद्ध अने अशुद्ध एवा बे प्रकार पडे छे, पण कारण परिणति तो शुद्ध ज छे, तेमां शुद्ध ने
अशुद्ध एवा बे प्रकार नथी. अहो! शुद्धतानुं ज कारण थवानो आत्मानो स्वभाव छे, आवा स्वभावने जाणे तो ते
कारणमांथी शुद्ध कार्य प्रगटया विना रहे नहि. कार्य जे केवळज्ञान तेना कारण उपरअहीं जोर देवुं छे, ते कारण उपर
जोर देतां वच्चे साधकदशामां मति–श्रुत वगेरे सम्यक्ज्ञान प्रगटी जाय छे, पण अहीं तो धु्रव–कारण उपर जोर देवुं छे
तेथी तेनी वात आ गाथानी टीकामां न लीधी–आवो टीकानो मर्म छे.
केवळ विभावरूप छे, ते तो अज्ञानी–मिथ्याद्रष्टिने ज होय छे. पहेलां अज्ञानदशामां ज्यारे कारणस्वभावनुं भान न
हतुं त्यारे एकांतविभावरूप उपयोग हतो, पछी कारणस्वभावनुं भान थतां साधकदशामां सम्यक्मतिश्रुत वगेरे
उपयोग प्रगटयां. पण साधक धर्मात्मानी द्रष्टिनुं जोर तो एकरूप कारणस्वभाव उपर ज छे; ते कारण उपर जोर
आपीने एकाग्र थतां केवळज्ञान थई जाय छे.
परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्वमां पेसी जाय छे–ऊंडो ऊतरी जाय छे, ते पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीनो एटले के
मुक्तिसुंदरीनो वल्लभ थाय छे.
जेमणे त्रणकाळ त्रणलोकनो पत्तो मेळवी लीधो छे–बधुं प्रत्यक्ष जाणी लीधुं छे एवा भगवान जिनेन्द्रदेवे ज्ञानना
आवा प्रकारो जाणीने कह्या छे; आवा वस्तुस्वभावने जे जाणे तेने परभावोथी भिन्नता ने निजस्वरूपमां लीनता
थया विना रहे नहि.
कारणस्वभाव सिवाय बीजा कोई पण भावोने अवलंबतो नथी, ने निजस्वरूपमां स्थिर रहे छे,–‘अहो! आवो
मारो कारणस्वभाव! आवी मारी वस्तु! आवा स्वभावथी वस्तुनी पूर्णता छे’–एम वस्तुस्वभावनो महिमा
लावीने तेमां ठरे छे....स्वभावमां ऊंडो ऊतरी जाय छे....कारणपरमात्मामां ऊंडो ऊतरीने एकदम लीन थई जाय छे
ते जीव साक्षात् परमात्मा थई जाय छे एटले के मुक्तिसुंदरीनो नाथ थई जाय छे.
आत्मामां जो विसद्रशरूप सापेक्ष उत्पाद–व्ययरूप पर्यायो ज होय ने सद्रशरूप निरपेक्ष धु्रवपरिणति
जो वर्तमान व्यक्तरूप विसद्रश पर्यायो न होय तो
मागशरः २४८२