Atmadharma magazine - Ank 146
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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छे, आ उपयोग त्रिकाळ निरुपाधिरूप छे, द्रव्य–गुण साथे त्रिकाळ पारिणामिकभावे रहेलो छे; तेने ज आगळ स्वरूप
प्रत्यक्ष सहजज्ञान तरीके वर्णवशे. आखा द्रव्य साथे त्रिकाळ अभेदरूप एवो आ सहजउपयोग केवळज्ञान प्रगटवानुं
कारण छे. एकदम अंतरमां धु्रव–कारणनी आ वात छे.
केवळज्ञान प्रगटे ते सकल प्रत्यक्ष छे; अने तेना कारणरूप जे कारणस्वभावज्ञान छे ते स्वरूप–प्रत्यक्ष छे.
कारणस्वभावज्ञान ते आधार छे, ने केवळज्ञान तेना आधारे थयेलुं कार्य छे. आ कारणस्वभावज्ञान उपयोग ते
परिणतिरूप होवा छतां धु्रव छे, प्रगट कार्यरूप नथी पण अप्रगट–शक्तिरूप छे, कारणरूप छे. कारणपणे आत्मामां ते
सदाय स्वरूप–प्रत्यक्ष वर्ते छे.
३ अज्ञान–उपयोग (कुमति वगेरे)
४ अधूरा ज्ञान उपयोग (सम्यक्गति–श्रुत वगेरे)
३ विभाव दर्शन–उपयोग (चक्षुदर्शन वगेरे)
–आ बधाय विभावउपयोग छे, ते सदा एकरूप नथी, पण विसद्रशरूप छे; केवळज्ञान अने केवळदर्शन ए
बे स्वभावउपयोग जो के प्रगटया पछी सदा एकरूप रहेनारा छे. परंतु ते पण त्रिकाळवर्ती नथी. आत्मामां अत्यारे
तो तेनो विरह छे. ज्यारे आ कारणस्वभावउपयोग आत्मा साथे त्रिकाळ एकरूप रहेनार छे, तेनो कदी विरह नथी;
तेथी ते आत्मानो परमस्वभाव छे.
कुमति आदि त्रण ज्ञानो अनादि सांत छे,
सम्यक्मति–श्रुत वगेरे चार छे ज्ञानो सादि सांत छे,
केवळज्ञान सादि–अनंत छे,
पण ते कोई ज्ञानोमां अनादि अनंत एकरूपता नथी, विसद्रशता छे. तो ते सिवायनो एक सद्रश
अनादिअनंत एकरूप वर्तनारो उपयोग छे ते अहीं बताववो छे.
धर्मास्तिकाय वगेरे चार अरूपी द्रव्योमां सद्रश एकरूप परिणति पारिणामिकभावे वर्ते छे. तो ज्ञाता एवा
जीवतत्त्वमां सद्रशपरिणति केवी छे ते अहीं बतावे छे जीवनी पर्यायमां संसार मोक्ष छे ते तो विसद्रश छे पण ते
सिवायनी एक सद्रशपरिणति उत्पाद–व्यय वगरनी धु्रवरूप पारिणामिकभावे वर्ते छे ते कार्यरूप नथी पण कारणरूप
छे, सदाय शुद्ध छे, उपाधि वगरनी छे, अने द्रव्य साथे सदा अभेदरूप होवाथी द्रव्यद्रष्टिनो विषय छे. आ निरपेक्ष
परिणतिने पंदरमी गाथामां ‘कारणशुद्धपर्याय’ कहीने बहु सरस रीते वर्णवशे, त्यां तेने ‘पूज्य’ कहेशे.
आ चालती (दसमी) गाथामां ‘उपयोग’ नी सद्रश परिणतिरूप ‘कारणस्वभावज्ञान’ नुं वर्णन छे. केवुं छे
ते कारणस्वभावज्ञान?
परम पारिणामिकभावे रहेलुं,
त्रिकाळ निरुपाधिरूप,
कारणस्वभावरूप एटले के केवळज्ञानना कारणरूप,
स्वरूप–प्रत्यक्ष (सकल –प्रत्यक्षनुं कारण),
सहज,
त्रिकाळ एकरूप अनादिअनंत,
–आ बधा विशेषणो कारणस्वभावज्ञानने लागु पडे छे. केवळज्ञानने पण आ विशेषणो लागु नथी पडता.
कारण स्वभावज्ञानने ज विशेषणो लागु पडे छे,–छतां आ वात छे उपयोग–परिणतिनी.
जुओ, आ आत्माना उपयोगनुं अद्भुत वर्णन! आ नियमसार सिवाय बीजे क्यांय आवी ‘खुल्ली’ वात
नथी आवती.
जुओ, क्यांथी शरू करीने क्यां सुधी लाव्या?
* आ जीव–अधिकार छे.
* जीवनो ‘उपयोग’ स्वभाव छे.
* उपयोग एटले आत्माना चैतन्यने अनुसरीने वर्तता परिणाम.
* ते उपयोगना बे प्रकार (१) ज्ञान अने (२) दर्शन.
*ज्ञानउपयोगना ‘स्वभाव’ अने विभाव एवा बे प्रकार,
* तेमांथी स्वभावउपयोग पण कारण ने कार्य एक बे प्रकारनो छे.
* तेमांथी ‘कारणस्वभावज्ञानउपयोग’ नुं आ वर्णन चाले छे. सात तत्त्वोमांथी एक जीवतत्त्व, तेमां आ
बधा प्रकारो समाई जाय छे.
जीवना चैतन्यने अनुसरीने वर्तता जे कारणस्वभावरूप ज्ञानपरिणाम ते केवळज्ञाननुं कारण छे, त्रिकाळ
निरावरण छे, अमूर्त–अतीन्द्रिय छे. आत्मामां आवो उपयोग
ः २६ः
आत्मधर्मः १४६