Atmadharma magazine - Ank 146
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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बनावनारुं कार्य न हतुं; तेने पोताने शुद्धकारणना अस्तित्वनी खबर न हती तेथी शुद्धकार्यने बदले अशुद्धकार्य थतुं.
अभेदना अवलंबने शुद्धकार्य (सम्यग्दर्शनादि) प्रगट कर्युं त्यां आ कारणनो खरो ख्याल आव्यो. सम्यग्दर्शन ल्यो, के
केवळज्ञान ल्यो, ए बधा शुद्धकार्यनुं मूळ कारण शुं ते अहीं अलौकिक ढबे ओळखाव्युं छे.
त्रीजी गाथामां कार्यनियम अने कारणनियमनी वात करी;
सातमी गाथामां कार्यपरमात्मानी साथे कारणपरमात्मानी वात करी.
नवमी गाथामां कार्यशुद्धजीव अने कारणशुद्धजीवनी वात करी.
दसमी गाथामां कार्यस्वभावज्ञान अने कारणस्वभावज्ञाननी वात करी.
–आ रीते कार्यनी साथे तेना आधारभूत कारण पण भेगुं ने भेगुं ज बताववा जाय छे.
पर्यायमां जेणे केवळज्ञान प्रगट कर्युं ते कार्यशुद्धजीव थयो. ते ज कार्य परमात्मा छे. तेना पहेलां साधकदशामां
जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप पर्याय छे ते मोक्षमार्गरूप कार्य छे, ते नियमथी कर्तव्य छे एटले के ‘कार्यनियम’ छे.
मोक्षमार्गनी पर्यायने ‘कार्यनियम’ कह्यो पण ‘कार्यशुद्धजीव’ न कह्यो. कार्यशुद्धजीव अथवा कार्यपरमात्मा तो पूरी
पर्याय प्रगटे त्यारे ज कहेवाय छे. छतां ते साधकपर्याय के पूरी पर्याय ए बंनेनो आधार तो एक ज छे. द्रव्य–गुण
ने कारणशुद्धपरिणतिना अभेदपिंडरूप आत्मानुं अवलंबन लेतां शुद्धपर्याय थाय छे. कारणस्वभाव तरफ अधूरा
वलणवाळो साधकभाव ते मोक्षमार्ग (अर्थात् कार्यनियम) छे, अने कारणस्वभाव साथे पूरी एकतारूप साध्यभाव
प्रगटी गयो ते कार्यशुद्धजीव छे. ‘कार्यनियम’ अने ‘कार्यशुद्धजीव’ मां आटलो फेर छे; पण तेना आधाररूप कारण
स्वभाव तो एक ज छे; सम्यग्दर्शननो आधार जुदो ने केवळज्ञाननो आधार जुदो–एम नथी. बधायने आलंबन
एक स्वभावनुं ज छे. ते स्वभावनुं अधूरुं आलंबन ते साधकदशा ने पूरुं आलंबन ते मोक्षदशा.
आत्माना पारिणामिक स्वभावे वर्ततो कारणशुद्ध उपयोग त्रिकाळनिरुपाधिस्वरूप छे, तेने निमित्तना
सद्भावनी के अभावनी अपेक्षा नथी. केवळज्ञानमां कर्मना क्षयनी अपेक्षा छे, पण आ कारणस्वभावज्ञानने ‘कर्मना
क्षयथी प्रगटयुं’ एवी अपेक्षा नथी, ते तो उपाधिवगरनुं सहज छे, आत्माना द्रव्य–गुण साथे त्रिकाळ अभेदपणे
वर्ते छे.
केवळज्ञान प्रगटया पछी तेमां जरा पण अशुद्धता के आवरण नथी तेथी तेने पण उपाधिरहित अने
स्वभावज्ञान कहेवाय छे. ने कारणस्वभावज्ञान तो त्रणेकाळ कर्मनी उपाधि वगरनुं, एकरूप पारिणामिक स्वभावे
वर्ते छे, कर्मनी हाजरी वखते पण ते तो सहज निरुपाधिक छे. विभावज्ञानना अभावनी अपेक्षाए केवळज्ञानने
स्वभावज्ञान कह्युं; अने पांच भावोना वर्णनमां परमपारिणामिक स्वभावनी अपेक्षाए औदयिकादि चारे भावोने
विभावस्वभावो कह्या. ए रीते जुदी जुदी अपेक्षाए ज्यां जे तात्पर्य होय ते समजवुं जोईए. मोक्षशास्त्रना बीजा
अध्यायना पहेला सूत्रमां औपशमिक आदि पांचे भावोने जीवना स्वतत्त्व कह्या त्यारे आ नियमसारमां कहे छे के
परमपारिणामिक भाव सिवायना चारे भावो विभाव छे, क्षायिकभाव पण विभाव छे.–ते शुं आ बे मुनिवरोना
कथनोमां परस्पर विरुद्धता छे?–बिलकुल नहि; मोक्षशास्त्रमां तो जीवना भावो कया कया छे ते बताववानुं प्रयोजन
छे, अने अहीं पांच भावोमांथी क्यो भाव आश्रय करवो जेवो छे–ते बताववानुं प्रयोजन छे. क्षायिकभाव पोते कांई
विभाव नथी, ते तो शुद्ध छे, पण ते क्षायिकभावरूप पर्यायनो आश्रय लेवा जतां विकारनी उत्पत्ति थाय छे. परम
पारिणामिकस्वभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शन वगेरे थाय छे, तेथी तेनो ज आश्रय लेवा जेवो छे.
आत्माना स्वभावनुं आ वर्णन छे. भाई! तारो आत्मा आवा ज स्वभाववाळो छे, आवा स्वभावने
जाणीने तेमां अंतर्मुख था तो तने धर्म थाय. धर्म माटे तारा आत्माना स्वभाव सिवाय तने बीजा कोईनो आधार
नथी. द्रव्य–गुण ने कारणशुद्धपरिणति सद्रशपणे त्रिकाळ धु्रव छे ते तारा धर्मनुं त्रिकाळी कारण छे. आवुं कारण तो
तारामां सदाय विद्यमान छे ज. पण तुं तेने कारण बनावतो नथी (–तेनुं अवलंबन लेतो नथी) तेथी धर्म थतो
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आत्मधर्मः १४६