Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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देय छे, एटले के शुद्धभाव ते ज खरेखरो धर्म छे. साधकदशामां शुद्धभावनी साथे शुभ पण होय,
पण ते शुभराग कांई धर्म नथी, छतां तेने धर्म कहेवो ते उपचार मात्र छे; अने अशुभनी
अपेक्षाए शुभने पण उपादेय व्यवहारथी कहेवाय, परमार्थे तो ते हेय ज छे.
आत्मा सम्यग्ज्ञानमय चैतन्यसूर्य छे, तेना प्रकाशमां शुभ–अशुभ भावो जणाय छे, पण
तेओ चैतन्यसूर्य साथे एकमेक नथी, चैतन्यसूर्यथी भिन्न छे.
रागरहित शुद्धभाव–एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागभाव–ते आत्मानो
स्वभाव छे. तेने चैतन्य साथे एकता छे. आ प्रमाणे शुद्ध तथा शुभ–अशुभभावोने जाणीने
तेमांथी कल्याणकारी भावने अंगीकार करवानो जिनदेवनो उपदेश छे.
–कया भाव कल्याणकारी छे?
–शुद्ध भाव, एटले के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप वीतरागभाव ते ज
खरेखर जीवने कल्याणकारी छे, तेथी ते ज उपदेश छे; माटे हे जीव! ते सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावने
तुं सम्यक् प्रकारे आचर–एवो भगवाननो उपदेश छे.
हिंसादि अशुभ भावथी तो पापनुं बंधन थाय छे ने तेनुं फळ दुर्गतिमां भ्रमण छे, तो तेने
श्रेयकारी केम कहेवाय?
ए ज प्रमाणे दया के व्रत वगेरेना शुभभावथी पुण्यनुं बंधन थाय छे ने तेना फळमां
स्वर्गादिनो भव मळे छे, पण तेना वडे कांई भवभ्रमणनो नाश नथी थतो, तो ते शुभने पण
श्रेयकारी केम कहेवाय?
शुभ अने अशुभ बंनेथी पार चिदानंद आत्मस्वभावनी सम्यक्श्रद्धा जीवे पूर्वे कदी एक
क्षण पण करी नथी. एकवार पण जो सम्यक्श्रद्धा करे तो अल्पकाळमां मुक्ति थई जाय. ए रीते
सम्यक्श्रद्धा तेमज सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ते शुद्धभाव छे ने तेनुं फळ परमश्रेयरूप मोक्ष
छे, तेथी ते शुद्ध भाव ज जीवने खरेखर श्रेयकारी छे.
–आम जाणीने हे जीव! तुं तारा श्रेयने माटे सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोने अंगीकार कर,
एम भगवान जिनेन्द्रदेवनो उपदेश छे.
शुद्धरत्नत्रय वडे ज जिनशासने महिमा छे
जीवना श्रेयने माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव अंगीकार करवानुं कह्युं; हवे कहे
छे के ते रत्नत्रयरूप बोधिनी प्राप्ति जैनशासनमां ज थाय छे. आ जिनशासननो महिमा छे के
जीवने त्रण भुवनमां पूज्य एवी बोधिनी प्राप्ति जिनशासनमां ज थाय छे. बोधि एटले
रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग, ते त्रणलोकमां पूज्य छे, अने तेनी प्राप्ति जिनशासनमां ज थाय छे–
केवा जीवने तेनी प्राप्ति थाय छे? एक तो मिथ्यात्वरूप मोह जेनो नाश थई गयो छे, तथा
परद्रव्यमां अहंकार–ममकाररूप मानकषाय जेनो गळी गयो छे, ए रीते मिथ्यात्व तथा परमां
इष्ट–अनीष्टपणानी बुद्धिना नाशथी जेनुं समभावी चित्त थयुं छे एवो जीव जिनशासनमां
अपूर्व बोधिने पामे छे.
जुओ, आ जिनशासननो महिमा! बीजी रीते जिनशासननुं माहात्म्य नथी पण बोधि
एटले शुद्ध रत्नत्रयरूप भावनी प्राप्ति जैनशासनमां ज थाय छे, ते शुद्ध रत्नत्रयना भाव वडे ज
जैनशासननी महत्ता छे, एटले के ते ज खरेखर जैनशासन छे. राग ते जैनशासन नथी, तेना
ः ४४ः आत्मधर्मः १४७