जिनशासननो महिमा [१]
(श्री भाव–प्राभृत गा. ७६–७७–७८ उपरना प्रवचनोमांथी)
हे जीव! तुं तारा श्रेय ने माटे सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावने अंगीकार कर–एम
जिनशासनमां भगवान जिनेन्द्रदेवनो उपदेश छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे वीतरागी शुद्धभाव ते ज मोक्षनुं कारण छे, अने ते
शुद्धभावनी प्राप्ति जैनशासनमां ज छे, तेनाथी ज जैनशासननो महिमा छे. ए सिवाय राग
ते जैनधर्म नथी, ने तेना वडे जैनशासननो महिमा नथी.
देखो, यह जैनशासनका उपदेश!!
अरे जीव! तारा आत्मामां प्रभुता ऊछळे.....ने तारी पामरता नाश पामे एवी
अद्भुत वात आ जैनशासनमां संतोए बतावी छे. माटे हे भाई! एक वार तारी रागनी
बुद्धि छोड ने आ वात समज. आ समज्ये ज तारुं हित छे.
– पू. गुरुदेव.
जीवना त्रण प्रकारना भावोमांथी श्रेयकारी एवा शुद्ध भावने
अंगीकार करवानो उपदेश
आ ‘भावप्राभृत’ मां शुद्ध भावनी प्रधानता छे एटले के शुद्धभाव ते ज मोक्षनुं कारण
छे एम बताव्युं छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे वीतरागी शुद्धभाव छे ते ज मोक्षनुं कारण
होवाथी उपादेय छे; ए सिवाय शुभ के अशुभ राग ते खरेखर उपादेय नथी.
मोक्षना कारणभूत सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्ररूप शुद्धभावनी प्राप्ति
जैनशासनमां ज छे अने तेनाथी ज जैनशासननो महिमा छे. मोह के राग–द्वेष ते जैनधर्म नथी.
पण मोह अने राग–द्वेष रहित एवो वीतरागी शुद्धभाव ते जैनधर्म छे.
आ भाव–प्राभृत छे, तेमां कयो भाव उपादेय छे, अथवा तो कयो भाव मोक्षनुं कारण छे.
तेनुं वर्णन छे. श्री जिनेश्वरदेवे जीवना भाव त्रण प्रकारना कह्या छे–शुभ, अशुभ ने शुद्ध; तेमांथी
शुभ भाव तो पुण्यबंधनुं कारण छे, अशुभ भाव पाप बंधनुं कारण छे, ने शुद्धभाव तो
शुद्धस्वभाव ज छे एटले ते मोक्षनुं कारण छे.–आ प्रमाणे जिनेश्वरदेवे त्रण भावो कह्या छे तेने
जाणीने, हे जीव! जे श्रेयकारी होय तेने तुं आचर.
आ भावप्राभृतमां शुद्धभावनी प्रधानता छे, ते शुद्धभाव ज मोक्षनुं कारण छे तेथी ते ज उपा–
पोषः २४८२ ः ४३ः