Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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ज हितकर छे ने ते ज उपादेय छे. राग ते जैनशासन नथी ने ते उपादेय नथी; ते तो विकार छे
तेथी हेय छे.
एक कोर शुद्ध स्वभाव, ने
तेनाथी विरुद्ध विकार;
हवे तेमांथी जेने शुद्ध स्वभावनी रुचि छे तेने रागनी रुचि नथी अने जेने विकारनी रुचि
छे तेने स्वभावनी रुचि नथी. आवी वात जैनशासनमां ज छे; एटले जेने जैनशासननी रुचि छे
तेने रागनी रुचि नथी, ने जेने रागनी रुचि छे तेने जैनशासननी रुचि नथी. जैनशासन रागथी
धर्म मनावतुं नथी. मंद राग वडे परमार्थधर्म पमाशे–ए मिथ्याद्रष्टिनी मान्यता छे. श्वेतांबर मत
पण मिथ्याद्रष्टिने रागथी (–दान, दयाथी) धर्म थवानुं मनावे छे,–ते खरेखर जैनशासन नथी.
जगतमां भिन्न भिन्न अनंत आत्माओ छे, अनंतानंत परमाणुओ छे. तेमां एकेक आत्मा
पोताथी परिपूर्ण ने परथी भिन्न छे. आत्मानी क्षणिक पर्यायमां राग थाय ते पण आत्मानो परमार्थ
स्वभाव नथी, आत्मानो शुद्ध चिदानंद स्वभाव तो रागथी पण पार छे. आवा शुद्ध
आत्मस्वभावनी समीपता–थतां स्वभावनी निःशंक द्रढता थतां, रागमांथी अने परमांथी अहंकार–
ममकार छूटी जाय तेनुं नाम निर्मानता छे; ने एवो निर्मान जीव रत्नत्रयरूप बोधिने पामे छे.
साधारण लौकिक निर्मानतानी आ वात नथी; ज्ञानस्वभावना भान विना सभामां छेल्ले बेसे के
कोईकना पग पासे बेसे ने बधायनो विनय साचवीने वर्ते अने माने के हवे आवा विनयथी मारुं
कल्याण थई जशे! तो ते कांई निर्मानता नथी, ते तो अविवेक अने मूढता छे. अहीं तो कहे छे के
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां
अहं थतां परमांथी ‘अहं–मम’ छूटी जाय, तेने ज मिथ्यात्व सहितना
मानादि कषायो गळी गया छे, ते ज निर्मान छे, ने तेने ज बोधिनी प्राप्ति थाय छे.
पोताना स्वरूपने भूलीने परमां पोतापणानी मान्यता ते मिथ्यात्व छे; एवा मिथ्यात्वने
लीधे अनादि काळथी जीव संसारमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. अनादिथी स्वरूपनी असावधानी ने
परमां सावधानी ते मिथ्यात्व हतुं, ते पण जीवमां एक अवस्था हती; हवे जैनशासननो उपदेश
पामीने स्वभावनी सावधानी वडे ते ऊंधी श्रद्धानो नाश करीने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–रमणता
प्रगट कर्या; आवा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–रमणतारूप मोक्षमार्ग जैनशासनमां ज थाय छे, एवुं
जैनशासननुं माहात्म्य छे.
अहो, जिनशासनो परम महिमा अने कुंदकुंदेवनी वाणी!
अहो! जैनशासननो आ परम महिमा छे के एकेक आत्मानो ज्ञाताद्रष्टा परिपूर्ण स्वभाव
ते बतावे छे, ने परद्रव्यो तथा परभावोमांथी अहंबुद्धि छोडावे छे. आत्मानो ज्ञानानंद स्वभाव
छे तेने परद्रव्यमां इष्ट–अनीष्टपणुं करवानो स्वभाव नथी. आवा स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–
रमणताथी ज खरी समता थाय छे. परद्रव्यो ज्ञेयोमां पण आ इष्ट ने आ अनीष्ट एवो स्वभाव
नथी; परमां कयांय इष्ट–अनीष्ट करवानो ज्ञाननो के ज्ञेयनो स्वभाव नथी; परमां इष्ट–
अनीष्टपणानी कल्पना तो अद्धरथी करे छे. ‘हुं तो ज्ञानस्वभाव ज छुं’–ए वात जो बराबर
समजे तो ज्ञाताद्रष्टा थईने समचित–वीतरागचित्त थई जाय! अहो! आ तो कुंदकुंदाचार्य
भगवाननी अलौकिक
ः ४६ः आत्मधर्मः १४७