तेथी हेय छे.
तेनाथी विरुद्ध विकार;
तेने रागनी रुचि नथी, ने जेने रागनी रुचि छे तेने जैनशासननी रुचि नथी. जैनशासन रागथी
धर्म मनावतुं नथी. मंद राग वडे परमार्थधर्म पमाशे–ए मिथ्याद्रष्टिनी मान्यता छे. श्वेतांबर मत
पण मिथ्याद्रष्टिने रागथी (–दान, दयाथी) धर्म थवानुं मनावे छे,–ते खरेखर जैनशासन नथी.
स्वभाव नथी, आत्मानो शुद्ध चिदानंद स्वभाव तो रागथी पण पार छे. आवा शुद्ध
आत्मस्वभावनी समीपता–थतां स्वभावनी निःशंक द्रढता थतां, रागमांथी अने परमांथी अहंकार–
ममकार छूटी जाय तेनुं नाम निर्मानता छे; ने एवो निर्मान जीव रत्नत्रयरूप बोधिने पामे छे.
साधारण लौकिक निर्मानतानी आ वात नथी; ज्ञानस्वभावना भान विना सभामां छेल्ले बेसे के
कोईकना पग पासे बेसे ने बधायनो विनय साचवीने वर्ते अने माने के हवे आवा विनयथी मारुं
कल्याण थई जशे! तो ते कांई निर्मानता नथी, ते तो अविवेक अने मूढता छे. अहीं तो कहे छे के
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां ‘
परमां सावधानी ते मिथ्यात्व हतुं, ते पण जीवमां एक अवस्था हती; हवे जैनशासननो उपदेश
पामीने स्वभावनी सावधानी वडे ते ऊंधी श्रद्धानो नाश करीने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–रमणता
प्रगट कर्या; आवा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–रमणतारूप मोक्षमार्ग जैनशासनमां ज थाय छे, एवुं
जैनशासननुं माहात्म्य छे.
छे तेने परद्रव्यमां इष्ट–अनीष्टपणुं करवानो स्वभाव नथी. आवा स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–
रमणताथी ज खरी समता थाय छे. परद्रव्यो ज्ञेयोमां पण आ इष्ट ने आ अनीष्ट एवो स्वभाव
नथी; परमां कयांय इष्ट–अनीष्ट करवानो ज्ञाननो के ज्ञेयनो स्वभाव नथी; परमां इष्ट–
अनीष्टपणानी कल्पना तो अद्धरथी करे छे. ‘हुं तो ज्ञानस्वभाव ज छुं’–ए वात जो बराबर
समजे तो ज्ञाताद्रष्टा थईने समचित–वीतरागचित्त थई जाय! अहो! आ तो कुंदकुंदाचार्य
भगवाननी अलौकिक