तेना निमित्ते कोईने तीर्थंकरप्रकृति पण बंधाय छे. श्रुतज्ञान शुं छे तेनी ज जेने खबर नथी एवा अज्ञानीने साची
श्रुतभक्ति होती नथी, ने तेने तीर्थंकरप्रकृति पण बंधाती नथी.
ज जन्म थाय छे, केमके ते पोताना ज्ञानने बहारमां ने रागमां ज एकाग्र करे छे तेथी तेमां आकुळतानी ज उत्पत्ति
थाय छे. ज्ञानीने चिदानंदस्वभावमां ज्ञानपरिणतिनी एकता थतां अतीन्द्रिय–आनंदनो जन्म थाय छे.
वगेरेनो जे वखत होय–ते काळे बराबर ते करवुं, ने तेमां भंग न पडवा देवो–तेनुं नाम आवश्यकनो अपरिहार छे.
निर्विकल्पदशा न होय त्यां समकितीने आवो भाव आवे तेनी वात छे. सम्यग्दर्शन वगर तो सामायिक वगेरे होता
नथी. सामायिक वगेरे सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, अने तेमां पण जे रागरहित सामायिक छे ते कांई बंधनुं कारण नथी,
पण तेनी साथेनो ते प्रकारनो विकल्प ते तीर्थंकर प्रकृति वगेरेना आस्रवनुं कारण छे.
‘आत्मप्रभावना’ एटले के ‘आत्मानी विशेष भावना’ छे, के जेनुं रत्नत्रयरूपी तेज–वडे उद्यापन थतां
केवळज्ञानरूपी उत्कृष्ट फळने आपे छे. स्वभावनी भावना वडे जेटली वीतरागी शुद्धता पोताना आत्मामां प्रगट करी
तेटली तो धर्मीने निश्चयप्रभावना छे, अने तेनी साथे साथे अस्थिरतानी भूमिकामां जिनधर्मनी प्रभावनानो
शुभभाव पण तेने आवे छे. तेनी द्रष्टि तो शुद्ध भावना लाभ उपर ज छे, पण वच्चे राग आवे छे तेटलुं खर्च छे.
आ रीते साधकदशामां अंशे शुद्धता अने अंशे राग बंने होय छे; केवळज्ञानी भगवानने रागनो तद्न अभाव थईने
पूर्ण आनंदनो लाभ थई गयो छे, एटले तेमने तो एकलो लाभ ज छे ने खर्च बिलकुल नथी. जेम चक्रवर्तीने पगले
पगले निधान पाके छे तेमां तेने एकलो लाभ ज छे, तेम धर्मना चक्रवर्ती एवा सर्वज्ञभगवानने एकलो धर्मनो पूरो
लाभ ज छे; साधकने पण शुद्ध स्वभावनी द्रष्टिमां पर्याये पर्याये लाभ ज थतो जाय छे,–छतां हजी अल्पराग छे
तेटलुं खर्च पण छे, छतां तेने शुद्ध द्रष्टिना जोरे लाभनी ज मुख्यता छे. शुद्ध द्रष्टि सहित वच्चे रत्नत्रयरूप
सन्मार्गनी प्रभावनानो, तेम ज देव–गुरु–शास्त्रनी प्रभावनानो शुभभाव छे, ने ते शुभभाव तीर्थंकरप्रकृति आदि
ऊंच पुण्यबंधननुं कारण छे. रत्नत्रयनो शुद्धभाव छे ते धर्म छे ने ते मोक्षनुं कारण छे.
पण तेने अतिशय प्रीतिनो भाव आवे छे. सम्यग्दर्शन सहितना वात्सल्यनी आ वात छे. सम्यग्दर्शन पहेलांनी
भूमिकामां पण धर्मात्मा प्रत्ये जिज्ञासुने अत्यंत वात्सल्य अने भक्तिनो भाव होय; पण तीर्थंकरप्रकृतिना कारणरूप
थाय एवो वात्सल्यभाव तो सम्यग्दर्शन सहित जीवने होय छे, तेथी अहीं तेनी वात छे.
तो होवी जोईए. दर्शनविशुद्धि वगर बीजी पंदर भावनाओनो व्यवहार होय तोपण ते कार्यकारी थतो नथी; अने ते
पंदर भावनाओ कदाच न होय तो पण एकली दर्शनविशुद्धिभावना ज ते पंदर भावनाओनुं कार्य करी ले छे. आ
रीते दर्शनविशुद्धिनुं एटले के सम्यग्दर्शननुं ज माहात्म्य छे. सम्यग्दर्शन पोते कांई बंधनुं कारण नथी, पण
दर्शनविशुद्धिमां सम्यग्दर्शननी साथे विशुद्धता संबंधी जे विकल्प होय ते बंधनुं कारण छे–एम समजवुं. आ रीते
जैनशासनमां सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावो ज उपादेय छे, ने ते शुद्धभावो वडे ज जैनशासननी शोभा छे, तेनाथी ज
जिनशासननो महिमा छे.