Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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करीने आत्मानुं परम हित करवुं होय तेणे सौथी पहेलां पोताना स्वभाव सामर्थ्यने ओळखीने तेनी प्रतीत करवी
जोईए के सर्वज्ञ परमेश्वर जेवुं परिपूर्ण सामर्थ्य मारा स्वभावमां पण छे, भगवानना अने मारा आत्माना
स्वभाव सामर्थ्यमां कांई फेर नथी. अनादिथी पोताना शुद्ध चिद्घनस्वभावने भूलीने पुण्य–पापथी ज जीवे लाभ
मान्यो छे. पण पुण्य–पाप रहित मारा चिद्घनस्वभावनुं अवलंबन लउं तो मने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनो लाभ
थाय–ए वात तेने कदी हृदयमां बेठी नथी.
सुख आत्माना स्वभावमां छे – संयोगमां सुख नथी – दुःख पण नथी
मारा अंतरना चैतन्यस्वभावमां ज मारुं सुख छे–एम आत्माना सम्यग्ज्ञान वगर, बहारना संयोगथी
मने सुख–दुःख थाय एवी मिथ्या कल्पना करीने अज्ञानी जीव पराश्रयमां अटकयो छे. जो पर संयोगमां सुख होय
तो थोडा संयोगवाळाने थोडुं सुख ने झाझा संयोगवाळाने झाझुं सुख थवुं जोईए, पण एम तो बनतुं नथी. एक
माणस पासे पांच लाखनी मूडी होय तेमांथी एक लाख जाय, त्यां बाकी चार लाख होवा छतां ते दुःखी थाय छे;
अने बीजो माणस एक लाखनी मूडीवाळो होय तेने बीजा एक लाख मळे, त्यां बे लाख होवा छतां ते पोताने सुखी
माने छे. जुओ, बे लाखवाळो सुखनी कल्पना करे छे ने चार लाखवाळो दुःखनी कल्पना करे छे, माटे संयोगने लीधे
सुख–दुःख नथी. ए ज प्रमाणे चारे कोर अनुकूळ सामग्रीना ढगला वच्चे कोई माणस बेठो होय ने तेमां सुख
मानतो होय, पण ज्यां मोटो वींछी करडे त्यां राड नांखे छे के अरे! हुं दुःखी थई गयो! जो संयोगमां सुख हतुं तो ते
ज संयोगो पडया होवा छतां ते सुख क्यां गयुं? माटे संयोगमां सुख सुख नथी, तेम संयोगमां दुःख पण नथी, महा
मुनिराज चैतन्यस्वरूपना ध्यानमां बिराजता होय ने बहारमां शरीरने सिंह खाई जता होय एवो संयोग होय,
छतां मुनिराजने संयोगनुं दुःख थतुं नथी पण चैतन्यना अपूर्व आनंदनो अनुभव वर्ते छे. आ रीते संयोगमां सुख
के दुःख नथी. पण अज्ञानी जीव पोतानी ऊंधी मान्यताथी परमां सुख–दुःख कल्पे छे. आत्मा सिवाय परमां सुख
नथी परमां दुःख पण नथी. जीवने पोतानी भूलथी ज दुःख छे; दुःख ते आत्माना सुखगुणनी विकृतदशा छे, ते दुःख
क्षणिक छे ने आत्मानो सुखस्वभाव त्रिकाळ छे. पोतानो चिदानंद स्वभाव ज सुखरूप छे–एवुं लक्ष जीवे कदी कर्युं
नथी. जेम चणामां मीठास भरी छे पण वर्तमान कचासने लीधे ते तूरो लागे छे, तेम भगवान आत्मानो स्वभाव
परिपूर्ण ज्ञान–आनंद रसथी भरपूर छे, पण तेना भान विना अज्ञानरूपी कचासने लीधे वर्तमानमां ते आकुळतानो
स्वाद भोगवे छे, ने चोरासीना अवतारमां रखडे छे; आम छतां तेना स्वभावमांथी सुखनो अभाव थई गयो नथी.
चिदानंद स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी रुचि अने एकाग्रता करतां अपूर्व आत्मसुखनो अनुभव थाय छे. आ
सिवाय बहारना कोई उपायथी सुख प्रगटतुं नथी केमके बहारना कोइ संयोगमां आत्मानुं सुख नथी.
आत्माना आनंदनी वात
धर्म कहो, सुख कहो के आत्मानो आनंद कहो, ए त्रणे एक ज छे. धर्म ते बहारनी कोई क्रिया नथी पण
आत्मानी निर्दोष दशा छे; धर्म ते सुख छे, धर्म ते आनंद छे. धर्ममां दुःख नथी, अने पुण्यमां के संयोगमां सुख नथी.
आत्माना अंर्तस्वभावमां ज वास्तविक आनंद छे, पुण्य–पापमां के तेना फळमा आत्मानो आनंद नथी आत्माना
आनंदनी आ वात जीवे पूर्वे कदी रुचिपूर्वक सांभळी नथी, ज्यारे वात काने पडी त्यारे समजण करीने अंतरमां
बेसाडी नथी. रागमां अटकयो पण चैतन्य तत्त्व रागथी पार छे, ते चैतन्यनी रुचि करवामां रागनुं अवलंबन छे ज
नहि; रागथी पार थईने आवी चैतन्यनी रुचि पूर्वे अनंतकाळमां जीवे कदी करी नथी. रागमां ने रागना फळमां
आनंद मानीने रोकाई गयो पण अंतर्मुख थईने चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदने जाण्यो नहि.
कुदरतनो कायदो
अज्ञान भावथी संसारनी चारे गतिमां जीव परिभ्रमण करे छे. जे जीव घणां तीव्र पापो करे छे ते तेनुं फळ
भोगववा नीचे नरकमां जाय छे. नीचे नरक गतिनुं स्थान छे, ते युक्तिथी पण सिद्ध थई शके छे. जुओ, आ लोकमां
एक क्षणमां एक खून करनार जो पकडाय तो सरकार तेने एक
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आत्मधर्मः १४७