Atmadharma magazine - Ank 147
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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वार फांसी आपे. पण जो कोई माणस घणां काळ सुधी हजारो लाखो माणसोने मारी नांखवाना परिणाम करे तो
अहीं तेने शुं सजा करे? तेने पण एक वार फांसी आपे.–तो शुं एक खून करनारने अने हजारो खून करनारने
बंनेने सरखुं फळ? ना, कुदरतना कायदामां एम होय नहि. हजारो माणसोनी हिंसा करवाना तीव्र पाप परिणामनुं
फळ नरकमां ते जीव भोगवे छे. वळी कोई जीव मोटां कतलखानां चलाववाना तीव्र पाप करतो होवा छतां अहीं ते
सुखी देखाय छे,–तो शुं पापना फळमां सुख होय? ना; त्यारे तेने जे सुख देखाय छे ते तो पूर्वना पुण्यनुं फळ छे, ने
वर्तमानमां जे क्रूर पाप करे छे तेनुं फळ तो ते नरकमां जईने भोगवशे; नरकमां अपार दुःख छे. चैतन्यस्वरूपना
भान विना तीव्र पापभावो करीने नरकनां दुःखो पण जीव अनंतवार भोगवी चूक्यो छे. चारे गतिना अवतार
जीवे अनंतवार कर्या छे. भले वर्तमानमां तेने याद न होय पण अनादिथी अत्यार सुधीनो काळ चार गतिमां ज
वीत्यो छे. कदी पण तेनी मुक्ति थई नथी. जेम छ मासनो बाळक हतो ने माताना पेटमां हतो–ते बाल्यकाळनो पण
ख्याल नथी आवतो छतां पण ते वखते पोते हतो तो खरो ने? तेम पूर्वे अनंतकाळमां क्यां हतो ते अत्यारे याद
नथी छतां पण ते वखते जीव कयांक हतो तो खरो ने?–ते क्यां हतो? मोक्ष तो पाम्यो नथी एटले संसारनी चार
गतिमां ज अत्यार सुधीनो काळ गूमाव्यो छे. संसारमां शुभभाव करीने अनंतवार मोटो देव थयो, ने महा पापो
करीने अनंतवार नारकी थयो; वळी तीव्र माया–दंभना परिणाम करीने अनंतवार तिर्यंच थयो अने सरळता वगेरे
कंईक मंद परिणामथी पुण्य करीने मनुष्य पण अनंतवार थयो; पण ते चारे गतिना भव अने ते भवना कारणरूप–
विभाव ते बंनेथी रहित चिदानंदस्वरूप मारो आत्मा छे–एवा भान वगर कदी जीवनुं कल्याण थयुं नहि. माटे
पहेलां आत्मानी जिज्ञासा प्रगटवी जोईए अने पात्र थईने सत्समागमे चैतन्यवस्तुनी समजण करीने तेनो
भरोसो बेसवो जोईए.
शुं करवुं?
प्रश्नः– आमां शुं करवानुं कह्युं?
उत्तरः– बहारनुं तो कांई करवानुं कहेता नथी केम के ते तो आत्माना हाथनी वात नथी. हवे अज्ञानी पुण्य
पाप अनादिथी करतो ज आवे छे, तेमां कांई आत्मानुं हित नथी एटले ते करवानुं पण केम कहेवाय? जेने आत्मानुं
अपूर्व हित करवुं होय, आत्माने आ भवभ्रमणना दुःखथी उगारवो होय तेणे अंतरमां अज्ञान टाळीने आत्मानुं
वास्तविक ज्ञान करवुं, ते ज करवानुं छे.
धर्मनुं साधन
आत्मा परथी तो शून्य छे एटले के परवस्तु वगरनो खाली छे, आत्मामां परवस्तु नथी ने परवस्तुमां
आत्मा नथी, तो परचीजथी आत्माने सुख थाय के परचीज आत्माने धर्ममां कांई सहायक थाय–एम कदी बनतुं
नथी. अंतरनो शुद्ध चैतन्यस्वभाव ते एक ज धर्मनुं साधन छे.
वात्सल्य अने भक्तिनो भाव धर्मीने आवे छे.
जेने धर्मनो प्रेम होय तेने बीजा धर्मात्माओ प्रत्ये पण वात्सल्य अने प्रीतिनो भाव आवे छे, भगवान
प्रत्ये तेम ज साधक संत–धर्मात्माओ प्रत्ये भक्तिनो भाव आवे छे, पण त्यां भगवान मने कांई आपी देशे–एवो
अभिप्राय नथी तेम ज ते भक्तिना शुभ रागथी धर्म थशे एम पण मानता नथी.
प्रश्नः– जो समकिती रागथी धर्म नथी मानता तो तेमने भक्ति वगेरेनो राग केम थाय छे?
उत्तरः– भाई, राग थाय ते चारित्रनो अपराध छे पण श्रद्धानो अपराध नथी. राग वखते पण धर्मीने ‘हुं
राग रहित चिदानंदस्वभाव छुं’ एम स्वभावमां ज हुं पणुं वर्ते छे–स्वभावनी प्रतीत वर्ते छे, एटले श्रद्धा सुधरी छे,
परंतु श्रद्धा सुधरतां चारित्र पण ते क्षणे ज पूरुं सुधरी जाय–एवो कांई नियम नथी; माटे रागथी धर्म न मानता होवा
छतां, वीतरागता नथी थई तेथी धर्मीने राग थाय छे, तेमां सम्यक्श्रद्धानो जरा पण अपराध नथी. धर्मात्माने
पोताना निरालंबी चैतन्यस्वभावनुं सम्यक् दर्शन अने ज्ञान थयुं छे. परथी लाभ थाय के रागथी धर्म थाय एवुं
स्वप्ने पण ते मानता नथी, परंतु हजी पोताने पूर्णता प्रगटी नथी, वीतरागता थई नथी, पूर्णतानी भावना वर्ते छे,
त्यां पूर्णताने पामी चूकेला सर्वज्ञभगवान प्रत्ये तेम ज तेना साधक संतो प्रत्ये भक्तिना उल्लासनो शुभ
पोषः २४८२
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