अहीं तेने शुं सजा करे? तेने पण एक वार फांसी आपे.–तो शुं एक खून करनारने अने हजारो खून करनारने
बंनेने सरखुं फळ? ना, कुदरतना कायदामां एम होय नहि. हजारो माणसोनी हिंसा करवाना तीव्र पाप परिणामनुं
फळ नरकमां ते जीव भोगवे छे. वळी कोई जीव मोटां कतलखानां चलाववाना तीव्र पाप करतो होवा छतां अहीं ते
सुखी देखाय छे,–तो शुं पापना फळमां सुख होय? ना; त्यारे तेने जे सुख देखाय छे ते तो पूर्वना पुण्यनुं फळ छे, ने
वर्तमानमां जे क्रूर पाप करे छे तेनुं फळ तो ते नरकमां जईने भोगवशे; नरकमां अपार दुःख छे. चैतन्यस्वरूपना
भान विना तीव्र पापभावो करीने नरकनां दुःखो पण जीव अनंतवार भोगवी चूक्यो छे. चारे गतिना अवतार
जीवे अनंतवार कर्या छे. भले वर्तमानमां तेने याद न होय पण अनादिथी अत्यार सुधीनो काळ चार गतिमां ज
वीत्यो छे. कदी पण तेनी मुक्ति थई नथी. जेम छ मासनो बाळक हतो ने माताना पेटमां हतो–ते बाल्यकाळनो पण
ख्याल नथी आवतो छतां पण ते वखते पोते हतो तो खरो ने? तेम पूर्वे अनंतकाळमां क्यां हतो ते अत्यारे याद
नथी छतां पण ते वखते जीव कयांक हतो तो खरो ने?–ते क्यां हतो? मोक्ष तो पाम्यो नथी एटले संसारनी चार
गतिमां ज अत्यार सुधीनो काळ गूमाव्यो छे. संसारमां शुभभाव करीने अनंतवार मोटो देव थयो, ने महा पापो
करीने अनंतवार नारकी थयो; वळी तीव्र माया–दंभना परिणाम करीने अनंतवार तिर्यंच थयो अने सरळता वगेरे
कंईक मंद परिणामथी पुण्य करीने मनुष्य पण अनंतवार थयो; पण ते चारे गतिना भव अने ते भवना कारणरूप–
विभाव ते बंनेथी रहित चिदानंदस्वरूप मारो आत्मा छे–एवा भान वगर कदी जीवनुं कल्याण थयुं नहि. माटे
पहेलां आत्मानी जिज्ञासा प्रगटवी जोईए अने पात्र थईने सत्समागमे चैतन्यवस्तुनी समजण करीने तेनो
भरोसो बेसवो जोईए.
प्रश्नः– आमां शुं करवानुं कह्युं?
उत्तरः– बहारनुं तो कांई करवानुं कहेता नथी केम के ते तो आत्माना हाथनी वात नथी. हवे अज्ञानी पुण्य
अपूर्व हित करवुं होय, आत्माने आ भवभ्रमणना दुःखथी उगारवो होय तेणे अंतरमां अज्ञान टाळीने आत्मानुं
वास्तविक ज्ञान करवुं, ते ज करवानुं छे.
नथी. अंतरनो शुद्ध चैतन्यस्वभाव ते एक ज धर्मनुं साधन छे.
अभिप्राय नथी तेम ज ते भक्तिना शुभ रागथी धर्म थशे एम पण मानता नथी.
उत्तरः– भाई, राग थाय ते चारित्रनो अपराध छे पण श्रद्धानो अपराध नथी. राग वखते पण धर्मीने ‘हुं
परंतु श्रद्धा सुधरतां चारित्र पण ते क्षणे ज पूरुं सुधरी जाय–एवो कांई नियम नथी; माटे रागथी धर्म न मानता होवा
छतां, वीतरागता नथी थई तेथी धर्मीने राग थाय छे, तेमां सम्यक्श्रद्धानो जरा पण अपराध नथी. धर्मात्माने
पोताना निरालंबी चैतन्यस्वभावनुं सम्यक् दर्शन अने ज्ञान थयुं छे. परथी लाभ थाय के रागथी धर्म थाय एवुं
स्वप्ने पण ते मानता नथी, परंतु हजी पोताने पूर्णता प्रगटी नथी, वीतरागता थई नथी, पूर्णतानी भावना वर्ते छे,
त्यां पूर्णताने पामी चूकेला सर्वज्ञभगवान प्रत्ये तेम ज तेना साधक संतो प्रत्ये भक्तिना उल्लासनो शुभ
पोषः २४८२