अने पुण्य–पापना विभावमां ज धर्म मानीने रोकाई जा–तो तेमां अपूर्व आत्महितनी प्राप्ति नहि थाय.
भगवान! शुद्ध सम्यग्ज्ञान वडे तारा ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणतां तने अपूर्व सम्यग्दर्शन थशे, अपूर्व
शांति प्रगटशे, ने तारा भवभ्रमणनो अंत आवी जशे.
चैतन्यस्वभावमां अतीन्द्रियआनंद भर्यो छे, तेने भूलीने जे विकृत अवस्था थई ते दुःख छे, दुःख क्यांय
अवस्था थतां मने दुःख थयुं–एवी जे असत् मान्यता छे ते ज दुःख अने संसार परिभ्रमणनुं मूळ छे. बहारना
संयोग के वियोग तो आत्माथी सदाय जुदा ज छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी, अने तेना कारणे आत्माने सुख–
दुःख नथी. ते पर चीजो आत्माना ज्ञाननुं ज्ञेय छे, ने आत्मा तो स्व–परप्रकाशक ज्ञानस्वभावी छे. ते स्वतंत्र
अनादिअनंत वस्तु छे, कोईए तेने बनाव्यो नथी, कोईए तेने रखडाव्यो नथी तेम ज कोई तेने तारनार नथी.
जो बीजो कोई आ आत्माने तारे तो आत्मा पराधीन थई जाय. आत्मा पोतानी भूल वडे रखड्यो छे, ने
चैतन्यना भान वडे पोते ज पोतानो तारनार छे. जैनपणुं एटले शुं? जैनना कूळमां जन्म्यो अने जैन एवुं
नाम कहेवायुं ते खरुं जैनपणुं नथी. पण हुं ज्ञानानंद स्वपरप्रकाशक छुं, विकारनो एक अंश पण मारो नथी
–आवा सम्यक्भान वडे अनादिनी ऊंधी रुचिने जीते एटले के ते ऊंधी रुचिनो नाश करे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन
छे अने ते ज प्रथम जैनपणुं छे. हजी तो आ जैनपणानी शरूआतनी वात छे. आवी यथार्थ ओळखाण वगर
जैनपणुं खरेखर होय नहीं. बहारमां पुण्यना संयोगनो ठाठ पड्यो होय, जडनी क्रिया तेना कारणे भजती होय,
अने पुण्य–पापनी वृत्तिओ पण वर्तती होय, छतां ते वखते धर्मीने ते बधायथी भिन्न चिदानंदस्वभावनुं
अंतरमां भान छे; धर्मीने आत्मानुं भान थयुं पछी तेने पुण्यना फळ होय ज नहि–एम नथी. पुण्य अने
पुण्यना फळ होय पण धर्मीने तेमां एकत्वबुद्धि नथी, तेमां क्यांय आत्मानी शांति मानता नथी, अंतरमां
भिन्न चिदानंद वस्तुनी ज रुचि छे. चैतन्यवस्तुमां मारो वास छे, अनंत गुणना पिंडमां आत्मानुं वास्तु कर्युं छे
ने बहारमांथी रुचि ऊडी गई छे, –एवा धर्मी बहारना संयोगमां क्यांय स्वप्नेय सुख मानता नथी.
जुओ; चैतन्यस्वभावी आत्मा बहारना संयोगथी जुदो छे, संयोगनी अनुकूळता ते कांई गुण नथी
‘हुं सधन’ एवुं अभिमान अने ‘हुं निर्धन’ एवी दीनता ते दोष छे. ए ज प्रमाणे बहारमां आबरू होवी ते
कांई गुण नथी अने अनाबरू होवी ते कांई दोष नथी; शरीरमां निरोगता होवी ते कांई गुण नथी ने शरीरमां
रोग थवो ते कांई दोष नथी, पण शरीरमां कांई थता “आ मने थयुं” एवी शरीर साथेनी एकत्वबुद्धि ते दोष
छे. अंतरमां देहादिथी पार हुं चिदानंदमूर्ति छुं, मारामां मारी प्रभुता पडी छे–आवुं लक्ष करीने चैतन्यस्वभावनी
प्रतीत करवी ते अपूर्व गुण छे–ते ज धर्मनी शरूआत छे. पहेलांं आ वात लक्षमां तो लो. भगवानपणुं अंतरमां
छे तेमांथी आवशे, बहारमांथी नहि आवे. पुण्य–पापनी वृत्ति ऊठे ते पण क्षणिक नाशवान छे, तेमांथी
चैतन्यनी प्रभुता नहि आवे. ते पुण्य–पापनी वृत्तिओ ज्ञान साथे एकमेक थई गयेली नथी पण भिन्न छे. हुं
ज्ञान छुं–एवी शुद्धज्ञाननी अंर्तद्रष्टि करवी ते धर्म छे. आवो धर्म थाय छतां हजी नीचली भूमिकामां पुण्यनी ने
पापनी पण लागणी होय. धर्मी थाय एटले तेने पापनी लागणी सर्वथा थाय ज नहि–एम नथी. पुण्य–पापनी
लागणी थाय पण धर्मीनी श्रद्धा पलटी गई छे, पुण्य–पापथी पार चिदानंदतत्त्व हुं छुं–एवी प्रतीत धर्मीनी
द्रष्टिमां पडी छे. पुण्य अने पाप बंने आस्रवो छे, ते मारा आत्मानुं असल स्वरूप नथी. ते आस्रवो मारा
ज्ञानमां ज्ञेयपणे जणाय छे, पण मारा ज्ञान साथे तेनी एकता नथी. आवुं चैतन्यनुं अंर्तभान करवुं ते अपूर्व
छे, छतां स्वभावना प्रयत्नथी ते थई शके तेवुं होवाथी सुगम छे. संयोगमां सुख मानीने तेने पोतानुं करवा
माटे अनादि काळथी मथे छे, पण एक रजकण तेनो थयो नथी, अने जो चिदानंदस्वभावनी ओळखाण करवानो
सत्समागमे यथार्थ प्रयत्न करे तो अपूर्व आत्मभान थया विना रहे