Atmadharma magazine - Ank 148
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: ६४ : आत्मधर्म : महा : २०१२ :
नहि, –माटे ते सुगम छे. पोताना स्वभावनी प्राप्ति करवी तो सुगम छे, ने पर चीज कदी पोतानी थई शकती
नथी. माटे हे भाई! तुं तारा ज्ञानानंदस्वरूपनी संभाळ कर. कदी तेनी दरकार करी नथी तेथी कठण लागे छे.
पण जो आत्मानी दरकार करीने प्रयत्न करे तो समजी शकाय तेवुं छे. भाई! तारे अनंतकाळना आ
परिभ्रमणनो अंत लाववो होय... ने आत्मानी अतीन्द्रिय शांतिनो अनुभव करवो होय तो तेनी आ रीत छे.
आत्मानुं अपूर्व भान थया पछी धर्मीने भगवाननी प्रतिष्ठा वगेरेना महोत्सवनो भाव आवे, पण धर्मी जाणे
छे के आ शुभराग छे–आस्रव छे. मारा चैतन्यनो स्वभाव आ रागथी पार छे; रागनुं ज्ञान थाय छे, पण राग
साथे एकताबुद्धि थती नथी. जो राग थाय तेने जाणे ज नहि तो ते ज्ञान पण खोटुं छे. अने राग थाय तेने धर्म
माने तो ते ज्ञान पण खोटुं छे. धर्मीने राग थाय छे तेने ते राग तरीके जाणे छे पण तेमां धर्म मानता नथी,
राग अने ज्ञाननी भिन्नतानुं भेदज्ञान तेने वर्ते छे, –आवुं अपूर्व भेदज्ञान करवुं ते धर्म छे. आ भेदज्ञान वगर
धर्म थाय नहि.
जुओ, आनुं वारंवार श्रवण–मनन करवुं तेमां कांई पुनरुक्ति दोष नथी, जेने जेनी रुचि होय ते तेनी
वारंवार भावना भावे छे. ज्यां सुधी आत्मानी यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान ने अनुभव न थाय त्यां सुधी सत्समागमे
वारंवार चैतन्यस्वभावनी वातनुं श्रवण–मनन अने भावना कर्या ज करवी. पोते पोताना स्वभावसन्मुख द्रष्टि
करतो नथी तेथी भवभ्रमणानो नाश थई जाय छे अने चैतन्यस्वभावने ओळखीने तेनी द्रष्टि करे तो
अल्पकाळमां भवभ्रमणनो नाश थई जाय छे. माटे वारंवार आ वातनुं श्रवण–मनन करीने चैतन्यस्वभावनी
ओळखाण करवी जोईए.
अंतकाळमां जीवे बधुं कर्युं पण पोताना चैतन्यस्वभावना महिमाने जाण्यो नथी. चैतन्यनी प्रभुतानो
महिमा चूकीने बहारना संयोगना अने पुण्यना महिमामां रोकाई गयो, पण प्रभुतानी ताकात पोताना
आत्मामां भरी छे तेनो विश्वास के महिमा कर्यो नहि. तेथी अहीं आचार्य भगवान कहे छे के हे भाई! नव
तत्त्वोमां तारुं शुद्ध जीव तत्त्व केवडुं छे तेन तुं जाण. नव तत्त्वोने ओळखीने तेमांथी, शुद्धनय वडे तारा अखंड
चैतन्यतत्त्वने लक्षमां लईने तेनी प्रतीत कर. आवी शुद्धआत्मानी प्रतीत करवी ते अपूर्व सम्यग्दर्शन छे, ते ज
धर्मनी शरूआत छे अने ते ज भवभ्रमणना नाशनो मूळ उपाय छे.
(वर स. २४८०न चत्र वद अठमन रज समयसर
गा. १३ उपर वढवाण शहेरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन)
(अनुसंधान पान ६१नो शेषांश)
लंबनथी आवा शुद्धआत्मानो अनुभव करवानो संतोनो उपदेश छे.
आ देहमां रहेलो दरेक आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे; शुद्धचैतन्य ने आनंद तेनो मूळ स्वभाव छे, अल्पज्ञता
ने विकार ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी. पण पोताना मूळ स्वरूपने भूलीने, विकार ते हुं, ने परनां काम माराथी
थाय छे एवी मिथ्याबुद्धिथी चार गतिमां परिभ्रमण करे छे. संसारमां परिभ्रमण करतां पुण्य करीने अनंतवार
स्वर्गमां गयो, तेमज पाप करीने अनंतवार नरकमां गयो, तिर्यंचमां ने मनुष्यमां पण अनंत जन्म–मरण कर्यां.
पण मारुं ज्ञानानंदस्वरूप शुं तेनो यथार्थ विचार एक सेकंड पण कदी कर्यो नथी. आत्मानुं यथार्थ स्वरूप जाणीने
सम्यग्ज्ञान थाय ने परिभ्रमण टळे तेनी आ वात छे. आत्माना शुद्ध स्वरूपना अनुभव विना सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञान थाय नहि. अनादिथी आत्माए पोताने देहरूप ने रागरूप अशुद्ध ज मान्यो छे ने तेनो ज अनुभव
कर्यो छे, पण देहथी पार ने रागथी पार जे शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप छे तेने कदी जाण्युं के अनुभव्युं नथी. क्षणिक
पर्यायमां अशुद्धता अने संयोग होवा छतां आत्मानो स्वभाव ते रूप थई गयो नथी, तेथी जो भूतार्थद्रष्टिथी
आत्माना स्वभावने देखो तो आत्मा शुद्धस्वभावपणे देखवामां तथा अनुभववामां आवे छे. ने आत्माना शुद्ध
स्वभावनो अनुभव थतां, “रागादि ते हुं ने देहादि ते हुं” एवी अनादिनी भ्रमबुद्धि टळी जाय छे... आ
मोक्षमार्गनी शरूआत छे ने पछी ते शुद्ध आत्माना ज अनुभवथी पर्यायमां शुद्धता थती जाय छे, ने रागादिनो
अभाव थईने पूर्ण शुद्धदशारूप परमात्मपद प्रगटे छे. माटे भूतार्थस्वभावनी सन्मुख थईने शुद्ध आत्मानो
अनुभव करो–एवो भगवाननो उपदेश छे.