भवभ्रमणनो नाश थई जाय छे. माटे वारंवार आ वातनुं श्रवण–मनन
करीने चैतन्यस्वभावनी ओळखाण करवी जोईए. ज्यां सुधी आत्मानी
यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान ने अनुभव न थाय त्यां सुधी सत्समागमे वारंवार
चैतन्यस्वभावनुं श्रवण–मनन अने भावना कर्या ज करवी. भगवान!
तारा ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणतां तने अपूर्व सम्यग्दर्शन थशे
–अपूर्व आत्मशान्ति प्रगटशे, ने तारा भवभ्रमणनो अंत आवी जशे.
आ देहमां रहेला चिदानंदआत्मानुं स्वरूप शुं छे तेने अंतरमां जाण्या विना शांति के धर्म न थाय. पुण्य–
अरीसामां बरफ के अग्नि जणाय त्यां अरीसो कांई ते बरफ के अग्नि साथे एकमेक थई गयो नथी, तेम पुण्यनी
के पापनी वृत्ति थाय ते आत्माना ज्ञानमां जणाय छे पण ज्ञान साथे ते पुण्य–पाप एकमेक थई गया नथी,
ज्ञान पुण्य–पापथी जुदुं छे–आवा भिन्न ज्ञानस्वभावनुं भान करवुं ते प्रथम धर्म छे; आवा आत्मभान वगर
धर्म थाय नहि ने भवभ्रमण टळे नहि.
थाय–एम अज्ञानी माने छे; पण भाई! शरीर तो भिन्न जड वस्तु छे, तेमां तारो धर्म भर्यो नथी. अंतरमां
शरीरथी भिन्न चैतन्यतत्त्व छे, तेने रागनुं पण अवलंबन नथी; चैतन्यतत्त्वमां पोतानी प्रभुतानी ताकात
भरी छे, तेमांथी ज प्रभुता आवशे. भगवान! तने अनंतकाळे मोंघो आ मनुष्यदेह मळ्यो. हवे सत्समागमे
चैतन्यनी प्रभुताना भणकार ने रणकार तारा आत्मामां न जगाड