भूतार्थ ज्ञानानंद स्थिर स्वभावने अनुभवमां पकडवो तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, ते धर्मनी पहेली भूमिका छे.
मारुं ज्ञान एकमेक थई गयुं नथी. पुण्य थाय छे ते मारी अवस्थानी लायकात छे अने ते मारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे
–एम धर्मी पुण्य तत्त्वने जाणे छे. कोई एम माने के मारामां विकार थवानी लायकात अवस्थामां पण नथी अने
जड कर्म मने विकार करावे छे, निमित्तोने लीधे मने पुण्य भाव थाय छे. तो तेणे खरेखर पुण्य तत्त्वने ओळख्युं
नथी, अने पुण्यने जाणनार पोताना ज्ञानसामर्थ्यनी पण तेने खबर नथी. भाई! पुण्य अने पाप ए बंने
तत्त्वोनुं अस्तित्व पण तारी अवस्थामां छे. –एम तुं जाण. आत्माना शुद्धस्वभावमां तो पुण्य–पाप थवानी
लायकात नथी, पण क्षणिक अवस्थामां जे पुण्य–पाप थाय छे ते पोतानी अवस्थानी लायकातथी ज थाय छे
–आम जाणे तो ते पुण्य–पापनी रुचि छोडीने धु्रव स्थायी ज्ञानस्वरूपमां एकाग्रता करे–ते सम्यग्दर्शननी रीत छे.
जीवने आवुं सम्यग्दर्शन थवा छतां देवगुरुधर्मनी भक्ति–बहुमाननो भाव आवे अने पापनो भाव पण थई
जाय, पण त्यां धर्मी जाणे छे के आ पुण्य अने पाप बंने तत्त्वो क्षणिक छे, मारा ज्ञानानंदस्वरूप साथे तेनी
एकता थई नथी; हुं तो स्थिर ज्ञान छुं ने आ पुण्य–पाप मारुं ज्ञेय छे. ज्ञेय केवुं? के मारी अवस्थानी क्षणिक
लायकात छे एवुं धर्मी जाणे छे, पण बीजाए मने आ विकार कराव्यो एम धर्मी मानता नथी.
उपर लक्ष जाय छे. भगवाननी भक्तिनो आवो शुभभाव तेमज आवा निमित्तो होय छे तेने जो स्वीकारे ज
नहि तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, तेने पुण्यतत्त्वनी खबर नथी. अने जे एम माने के आवो शुभभाव करतां
करतां मने सम्यग्दर्शन थई जशे–तो तेने पण पुण्यतत्त्वनी के संवरतत्त्वनी खबर नथी. ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
अहीं तो कहे छे के नवतत्त्वना भेद उपर लक्ष रहे त्यां सुधी पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी. नवतत्त्वना भेदनुं
अवलंबन छोडीने एकाकार स्थिर ज्ञानस्वरूपनुं एकनुं ज अवलंबन करीने निर्विकल्प प्रतीति थाय तेनुं नाम
सम्यग्दर्शन छे.
निमित्त–नैमित्तिक संबंध जेटलुं मारुं चैतन्यतत्त्व नथी, मारुं चैतन्यतत्त्व पुण्य–पापथी पार छे–एम धर्मीनी द्रष्टि
पोताना स्थिर ज्ञानस्वरूप उपर पडी छे, आवी द्रष्टिमां नवतत्त्वना विकल्पोनो अभाव छे ने एकाकार ज्ञानानंद
स्वरूपनो अनुभव छे. आ रीते नवतत्त्वोमांथी एकाकार ज्ञानानंदस्वभावनो अनुभव करवो –
निर्विकल्प प्रतीति करवी ते अपूर्व सम्यग्दर्शननो उपाय छे, ने आ ज उपायथी धर्मनी शरूआत थाय छे; आ
सिवाय बीजी कोई रीते धर्मनी शरूआत थती नथी.
समीप रहीने, के विकल्पनी समीप रहीने आत्मानी शुद्धतानो अनुभव थई शकतो नथी, एटले के आत्मानुं
वास्तविकस्वरूप प्रतीतमां के ज्ञानमां आवतुं नथी. भेदथी दूर थईने ने अभेदनी समीप थईने, विकल्पथी दूर
थईने ने ज्ञायकस्वभावनी समीप थईने, अनुभव करतां, द्रव्य–पर्यायनी एकतारूप शुद्धआत्मानो अनुभव
थाय छे. आवा अनुभवथी ज अनादिना मिथ्यात्वनो नाश थईने अपूर्व मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे. माटे
शुद्धनयना अव–