Atmadharma magazine - Ank 148
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 21

background image
: महा : २०१२ : आत्मधर्म : ६७ :
स्वरूपनो निर्णय करीने तेनुं ज ध्यान करजे, अने ध्यानमां न रहेवाय त्यारे एवा परमात्मस्वरूपनी सन्मुख
थवानुं बतावनारां वीतरागी शास्त्रोनुं अध्ययन करजे. मोक्षनो उपाय तो राग रहित थईने अंतरमां
परमात्मस्वरूपनुं ध्यान करवुं ते ज छे.
आत्मानी पूर्ण शुद्धदशारूप जे मोक्ष तेनी तेने भावना होय तेणे शुं करवुं–ते वात चाले छे. हुं तो
शुद्धचिद्रूप छुं, देह–मन–वाणी हुं नथी, हुं तो शुद्ध चिदानंद परमात्मा छुं, मारो आत्मा ज परमात्मा छे–एम
अंतरमां पोताना परमात्मस्वभावने ओळखीने तेनुं ध्यान करवुं ते ज परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय छे.
अनंतचतुष्टयनी शक्तिथी भरेलो हुं ज कारणपरमात्मा छुं–एम कारणना ध्यानथी कार्य प्रगटी जाय छे. कारण–
परमात्मानी भावनाथी आत्मा पोते परमात्मा बनी जाय छे. शास्त्रोनो नीचोड आ छे के तारो आत्मा ज
परमात्मा छे एम तुं लक्षमां ले. तारी परमात्मदशा क्यांय बहारथी नहि आवे, तारा आत्मामां ज परमात्मा
थवानी ताकात भरी छे, तेना ध्यान वडे तेने खोल तो परमात्मदशा प्रगटे. अतीन्द्रिय आनंदरस तारामां ज
भर्यो छे... पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन, पूर्ण वीर्य ने पूर्ण आनंदथी तुं भरेलो छे... तेमां अंतर डुबकी मार तो तेमांथी
पूर्णज्ञान–दर्शन–वीर्य ने आनंदरूप परमात्मदशा खीली जशे. जो अंतरमां नहीं होय तो क्यांथी आवशे? माटे
अंतरमां स्वभाव भर्यो छे तेने लक्षमां ले... तारा स्वभावनुं अंतर–अवलोकन कर, ते ज परमात्मा थवानो
उपाय छे. ने ए ज सर्वे शास्त्रोनो सार छे. शास्त्रो भणी भणीने शुं करवुं? के “अंतरमां हुं शुद्धचिदानंद
आनंदकंद परमात्मा छुं” एम पोताना आत्माने लक्षमां लईने तेने ध्याववो.
हुं देह, हुं मन, हुं वाणी, हुं कर्म, हुं राग–एवी जेनी द्रष्टि छे ते तो मूढ बहिरात्मा छे, शास्त्रोना रहस्यनी
तेने खबर नथी. देहथी पार, मनथी पार, वाणीथी पार, कर्मथी पार ने रागथी पार, ज्ञान ने आनंद भरेलो
भगवान हुं छुं–एम पोताना आत्माने शुद्ध चिदानंदस्वरूपे ओळखीने अनुभवमां लेवो ते सर्वे शास्त्रोनो
नीचोड छे... ते ज सर्वज्ञभगवाननी आज्ञा छे... ते ज मुक्तिनो मार्ग छे.
अहो, अंतरमां तारो आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान ने आनंदनी विभूतिथी भरेलो छे... तारा आत्मानी
विभूतिने तो देख. आ देहादि तो जड छे, तेमां क्यांय तारो अधिकार नथी. तारुं चैतन्यतत्त्व देहथी पार,
अचिंत्य ज्ञानआनंदना वैभवथी भरेलुं छे, ते वैभवमांथी परमात्मपद प्राप्त थशे. प्रभु! एकवार तारी प्रभुताने
देख! सर्वज्ञ भगवंतोए तारी प्रभुतानां ज गाणां गायां छे... शास्त्रोए पण तारी प्रभुतानो ज महिमा गायो
छे. प्रभुतानी ताकात तारा आत्मामां भरी ले–तेनो एकवार उल्लास तो लाव. तारी प्रभुताने ओळखीने तेनी
आराधना कर... ते ज परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय छे.
चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थईने तेना ध्यान वडे जे जीव रत्नत्रयने आराधे छे ते आराधक छे, अने ते
आराधनानुं फळ केवळज्ञान छे–एम हवे कहे छे.
अंतर्मुख थईने, मारो आत्मा ज परमात्मा छे–एवी निर्विकल्प प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शननी
आराधना छे. अंतर्मुख थईने आत्मानुं स्वसंवेदनज्ञान करवुं ते सम्यग्ज्ञाननी आराधना छे; अने
परमात्मस्वरूपना अतींद्रिय आनंदना अनुभवमां लीनता करवी ते सम्यक्चारित्रनी आराधना छे. आ रीते जे
जीव सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयनी आराधना करे छे ते आराधक छे, ने तेनी आराधनानुं फळ
केवळज्ञान छे.
जुओ, आ आत्मानी सेवा करवानी रीत!! आत्मा पोते परमात्मशक्तिथी भरेलो छे, तेनी सन्मुख
थईने तेनी रुचिरूपी गंध आत्मामां जेणे प्रगटावी तेणे ते सुगंधरूपी अगरबत्ती वडे परमात्मानुं पूजन कर्युं...
ने तेमां लीन थईने आनंदरसना अनुभवमां एकाग्र थयो तेणे आनंदरूपी जळमां आत्मानो अभिषेक कर्यो.
आ रीते पोताना परमात्मस्वरूपनी रुचि करीने तेना अनुभवमां लीन थवुं ते ज परमात्मानी साची उपासना
छे, ते आराधना छे, ते ज परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय छे.
भगवान! तारा स्वरूपनुं सेवन करवानी आ रीत तो एकवार सूण!