: ६८ : आत्मधर्म : महा : २०१२ :
विधविध प्रश्नोत्तर
कर्मनुं फळ
प्र: ‘कर्मनुं फळ धर्म’ एम होय?
उ: हा.
प्र: कई रीते?
उ: आत्मानुं जे शुद्ध ज्ञानचेतनारूप कर्म छे तेनुं फळ धर्म छे.
(प्रवचनसार गा. १२६ना प्रवचनमांथी)
धर्मनी क्रिया अफळ!
प्र: ‘परमधर्म’ रूप क्रिया अफळ छे के सफळ?
उ: अफळ.
प्र: कई रीते?
उ: ते परमधर्मरूप क्रिया चार गतिरूप फळ नथी आपती तेथी ते
अफळ छे. द्रव्यना परम स्वभावभूत होवाने लीधे ‘परमधर्म’
नामथी ओळखाती ते क्रियाने मोह साथे मिलननो नाश थयो
होवाथी ते मनुष्यादि कार्यने ऊपजावती नथी, तेथी ते अफळ ज
छे.
प्र: तो कई क्रिया सफळ छे?
उ: चेतन परिणामस्वरूप जे क्रिया मोहनी साथे मिलित छे ते ज क्रिया
मनुष्यादि कार्यनी निष्पादक होवाथी सफळ छे; अर्थात् जीवनी
मोह सहित क्रिया चार गतिरूप फळने आपती होवाथी ते सफळ
छे.
आत्मानी ‘परमधर्म’ रूप जे क्रिया छे ते मोक्षने माटे सफळ छे, ने
संसारने माटे अफळ छे.
अने मोह साथे मिलनरूप जे क्रिया छे ते संसारमां रखडवा माटे
सफळ छे, ने मोक्षने माटे अफळ छे.
(–प्रवचनसार गा. ११६ना व्याख्यानमांथी.)