: महा : २०१२ : आत्मधर्म : ६९ :
हे जीव! तुं आत्महितना कार्यमां तत्पर था,
– अने –
रागादि व्यवहारमां तत्परता छोड
(श्री अष्टप्राभृत – मोक्षप्राभृत गा. ३१ उपरना प्रवचनमांथी)
जेने जेनी सन्मुख द्रष्टि पडी छे तेमां ज ते जागे छे. ज्ञानीनी द्रष्टि
पोताना आत्मा उपर पडी छे एटले ते स्वकार्यमां जागे छे, चैतन्यना
ध्यान वडे रत्नत्रयरूप निजकार्यने ते साधे छे; अने अज्ञानीने तो
व्यवहारनी–रागनी रुचि छे, एटले ते रागमां ज तत्पर छे, ने चैतन्यना
कार्यमां ते ऊंघे छे तेथी तेने चैतन्यनुं सम्यग्दर्शनादि कार्य सिद्ध थतुं नथी.
आत्माना चिदानंदस्वरूपनुं श्रद्धान करीने तेना ध्यानमां जे तत्पर
छे ते जीव रागादि व्यवहारमां तत्पर थतो नथी, अने जे जीव रागादि
व्यवहारमां तत्पर छे ते आत्माना कार्यमां ऊंधे छे. माटे हे जीव! तुं
रागादि व्यवहारनी रुचि छोड ने आत्महितमां जागृत था, आत्माने
साधवामां तत्पर था. एम संतोनो उपदेश छे.
आत्मामां जे राग–द्वेष–मोहरूप विकार छे तेनो नाश थईने, पूर्ण वीतरागता अने
आनंदस्वरूप मोक्षदशा केम थाय? तेनी आ वात चाले छे.
आत्मा जे परमात्मपणुं प्रगट करवा मांगे छे ते परमात्मपणुं तेनी पोतानी ज अंर्तशक्तिमां
भर्युं छे, तेनी श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतारूप ध्यान वडे परमात्मदशा प्रगटे छे. आ रीते परमात्मध्यान ते
मोक्षनुं कारण छे.
हुं पोते अतीन्द्रिय आनंदरसथी भरेलो छुं मारो स्वभाव ज आनंदस्वरूप छे–एवी
अंतरप्रतीति वडे, एवा अंर्तज्ञान वडे ने एवा अंतरना अनुभव वडे परमआनंदरूप मोक्षदशा
प्रगटे छे, ने मोहादि दुःखभावो टळी जाय छे.
प्रश्न:– आमां पूजा करवानुं तो न आव्युं?
उत्तर:– ए पण आवी गयुं; कई रीते? के आत्मा पोते ज परमात्मशक्तिथी भरेलो छे–एम