Atmadharma magazine - Ank 148
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २०१२ : आत्मधर्म : ७१ :
ज्ञानने वाळतो नथी तेथी आत्माना कार्यने माटे ते आंधळो छे ने रागमां ज जागतो छे. अज्ञानी
कहे छे के “पहेलांं व्यवहार तो जोईए ने! व्यवहार ते साधन छे” ... तो अहीं आचार्यभगवान
स्पष्ट कहे छे के व्यवहारमां जे ऊंघे छे ते ज परमार्थ–आत्महितने साधे छे; अने व्यवहारमां जे जागे
छे ते तो स्वकार्यमां ऊंघे छे.
सावधानी क्यां करवी? तेनी आ वात छे. आम (अंतरमां) स्वभाव छे, ने आम राग छे;
तेमांथी जे जीव स्वभावमां जागृत छे–स्वभावमां सावधान छे ते जीव स्वकार्यने साधे छे, ने जे जीव
रागमां सावधान छे ते जीव स्वकार्यने साधी शकतो नथी. जेने चैतन्यस्वभावने साधवानी दरकार
नथी, चैतन्यना कार्यमां जागृति नथी, ने रागमां ज जागृत छे–बहारना आरंभ–परिग्रहमा ज
सावधान थईने वर्ते छे ते साधु केवो? ते तो पाखंडी छे.
बहारनो संसारी व्यवहार–कुटुंब कबीलानां काम के पैसानी लेवडदेवड वगेरे तो मुनिने होता
ज नथी, एटले एवा कार्यमां जे तत्पर छे ने मुनिपणानुं नाम धरावे छे ते तो मुनि नथी पण दंभी
छे, अने मुनिदशामां होय एवा प्रकारनो पंचमहाव्रतादि व्यवहार, गुरुनी सेवा वगेरेनो भाव आवे,
–परंतु मुनि तेमां पण तत्पर नथी, मुनि तो स्वभावनी साधनामां ज तत्पर छे, वारंवार रागने
तोडीने निर्विकल्प आनंदनो अनुभव करे छे. व्यवहारनो राग आवे छे छतां तेने मोक्षमार्ग मानता
नथी तेथी तेमां ते तत्पर नथी, स्वभावना ध्यानने ज मोक्षनुं साधन मानीने तेमां ते तत्पर छे.
समकितीने चोथा गुणस्थाने पण आ ज प्रकारनी मान्यता होय छे, श्रद्धा–अपेक्षाए तो
समकिती पण आत्मकार्यमां ज तत्पर वर्ते छे, रागमां ते तत्पर नथी, रागने स्वप्नेय मोक्षनुं कारण
ते मानता नथी. हुं मारा चिदानंदस्वरूपमां ठरुं ए ज मारा मोक्षनुं कारण छे–एम जाणीने ते
स्वरूपने साधवामां ज तत्पर छे. व्यवहारने–शुभरागने जे हितनुं कारण मानता होय तेने आ
गाथानो आधार आपीने पं. टोडरमल्लजी मोक्षमार्गप्रकाशकमां कहे छे के–“जे व्यवहारमां सूता छे ते
योगी पोताना कार्यमां जागे छे तथा जे व्यवहारमां जागे छे ते पोताना कार्यमां सूता छे; माटे
व्यवहारनयनुं श्रद्धान छोडी, निश्चयनयनुं श्रद्धान करवुं योग्य छे. व्यवहारनय स्वद्रव्य–परद्रव्यने, वा
तेमना भावोने, वा कारणकार्यादिकने कोईना कोईमां मेळवी निरुपण करे छे, माटे एवा ज श्रद्धानथी
मिथ्यात्व छे, तेथी तेनो त्याग करवो. वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरुपण करे छे तथा कोईने
कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे, माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.”
(पृ. २५५–२५६)
आत्मानो जे शुद्धचिदानंदस्वभाव छे तेनी सन्मुख थईने तेनी श्रद्धा करवी तथा ते
स्वभावमां उपयोगनी जागृति राखवी ते मोक्षनुं कारण छे. तेथी ज्ञानी धर्मात्मा तो पोताना
शुद्धस्वभावने ज साधवामां तत्पर छे–तेमां ज उद्यमी छे–तेमां ज जागृत छे; वच्चे राग आवे पण
तेमां तत्पर नथी ते व्यवहारमां सूतेला (अतत्पर) छे. माटे जीव! तुं पण व्यवहारनी तत्परता
छोड ने आत्मस्वभावमां तत्पर था!