Atmadharma magazine - Ank 148
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: ७२ : आत्मधर्म : महा : २०१२ :
मिथ्याद्रष्टिने के सम्यग्द्रष्टिने पण, राग तो बंधनुं ज
कारण छे, शुद्ध स्वरूप – परिणमन मात्रथी ज मोक्ष छे.

समयसारना पुण्य–पाप अधिकारना ११०मा कळशमां श्री आचार्यदेव कहे छे के–
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा
कर्मज्ञानसमुच्चयोडपि विहितस्तावन्न काचित्
द्रक्ष्ातिः।
किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्मबंधाय तन्
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः।।
११०।।
अर्थ:– ज्यां सुधी ज्ञाननी कर्मविरति बराबर परिपूर्णता पामती नथी त्यां सुधी कर्म अने ज्ञाननुं
एकठापणुं शास्त्रमां कह्युं छे; तेमना एकठा रहेवामां कांईपण क्षति अर्थात् विरोध नथी. परंतु अहीं एटलुं
विशेष जाणवुं के आत्मामां अवशपणे जे कर्म प्रगट थाय छे अर्थात् उदय थाय छे ते तो बंधनुं कारण थाय छे,
अने मोक्षनुं कारण तो, जे एक परम ज्ञान छे ते एक ज थाय छे के जे ज्ञान स्वत: विमुक्त छे (अर्थात् त्रणे
काळे परद्रव्य भावोथी भिन्न छे.)
भावार्थ:– ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र थतुं नथी त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टिने बे धारा रहे छे–शुभाशुभ
कर्मधारा अने ज्ञानधारा. ते बंने साथे रहेवामां कांई पण विरोध नथी. (जेम मिथ्याज्ञानने अने सम्यग्ज्ञानने
परस्पर विरोध छे तेम कर्मसामान्यने अने ज्ञानने विरोध नथी.) ते स्थितिमां कर्म पोतानुं कार्य करे छे अने
ज्ञान पोतानुं कार्य करे छे. जेटला अंशे शुभाशुभ कर्मधारा छे तेटला अंशे कर्मबंध थाय छे अने जेटला अंशे
ज्ञानधारा छे तेटला अंशे कर्मनो नाश थतो जाय छे. विषय कषायना विकल्पो के व्रतनियमना विकल्पो
–शुद्धस्वरूपनो विचार सुद्धां–कर्म–बंधनुं कारण छे. शुद्ध परिणति रूप ज्ञानधारा ज मोक्षनुं कारण छे.
(समयसार नवी गुजराती आवृत्ति पृ. २६३–२६४)
वळी आ कळशना अर्थमां श्री राजमल्लजी पण स्पष्ट खुलासो करे छे के–
“अहीं कोई भ्रांति करशे– ‘मिथ्याद्रष्टिने यतिपणुं क्रियारूप छे ते तो बंधनुं कारण छे, पण सम्यग्द्रष्टिने जे
यतिपणुं शुभ क्रियारूप छे ते मोक्षनुं कारण छे, केम के अनुभव ज्ञान तथा दया, व्रत, तप, संयमरूपी क्रिया–ए बंने
मळीने ज्ञानावरणादि कर्मनो क्षय करे छे.’ –आवी प्रतीत कोई अज्ञानी जीव करे छे, –तेनुं समाधान आ प्रमाणे छे
जे कोई पण शुभ–अशुभ क्रिया–बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अंतर्जल्परूप अथवा द्रव्यना विचाररूप
अथवा शुद्धस्वरूपना विचार ईत्यादि–छे ते समस्त कर्मबंधनुं कारण छे; एवी क्रियानो एवो ज स्वभाव छे.
सम्यग्द्रष्टि, मिथ्याद्रष्टिनो एवो तो कांई भेद नथी (अर्थात् उपर अज्ञानीए कह्युं ते प्रमाणे शुभक्रिया
मिथ्याद्रष्टिने तो बंधनुं कारण थाय ने ते ज क्रिया सम्यग्द्रष्टिने मोक्षनुं कारण थाय एवो तो तेमनो भेद नथी)
एवी क्रियाथी तो तेने (समकितीने पण) बंध छे अने शुद्धस्वरूप परिणमनमात्रथी मोक्ष छे. जो के एक ज काळे
सम्यग्द्रष्टि जीवने शुद्धज्ञान पण छे अने क्रियारूप परिणाम पण छे, –परंतु तेमां विक्रियारूप जे परिणाम छे
तेनाथी तो एकलो बंध थाय छे, तेनाथी कर्मनो क्षय एक अंश पण थतो नथी–एवुं वस्तुनुं स्वरूप छे, –तो
ईलाज शो? ते काळे ज्ञानीने शुद्धस्वरूपनुं अनुभवज्ञान पण छे, ते ज्ञान वडे त्यारे कर्मने क्षय थाय छे, तेनाथी
एक अंशमात्र पण बंधन थतुं नथी, –वस्तुनुं आवुं ज स्वरूप छे, ते जेम छे तेम कहीए छीए.”
(जुओ समयसार कळशटीका पानुं ११२)
उपर मुजब खुलासो करीने पछी ते कळशनो अर्थ विस्तारथी लख्यो छे तेमां पण ते बाबतनी स्पष्टता
छे; तेमां छेवटे लखे छे के–... ‘शुभक्रिया कदी पण मोक्षनुं साधन थई शकती नथी ते केवळ बंधनी ज करनारी छे
एवी श्रद्धा करवाथी ज मिथ्याबुद्धिनो नाश थईने सम्यग्ज्ञाननो लाभ थशे. मोक्षनो उपाय तो एक मात्र
निश्चयरत्नत्रयमय आत्मानी शुद्धवीतराग परिणति छे.”
(विशेष माटे जाुओ समयसार कळशटीका पृ. १२ थी १४)