Atmadharma magazine - Ank 148
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २०१२ : आत्मधर्म : ५७ :
गीरनार धामां गुरुदेवनुं प्रवचन
(“गीरनार यात्रा महोत्सव” प्रसंगे जाुनागढमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन)
* वर स. २४८०, मह सद १३, भग: १ *
‘अमारे शुं करवुं?’ अथवा ‘जीवनुं ध्येय शुं?’
आ मनुष्यपणामां अवतरीने करवा जेवुं कार्य कहो के
जीवननुं ध्येय कहो–ते आ छे के, पोताना वास्तविक स्वरूपनी
ओळखाण करवी ने पछी तेमां एकाग्रता करवी. चैतन्यना
भान वगर दयादिना शुभ भावो पण जीवे पूर्वे अनंतवार
कर्यां छे, ते कांई जीवननुं ध्येय नथी.
आ मनुष्यपणुं पामीने जेने पोतानुं हित करवुं होय–
कल्याण करवुं होय तेणे, बीजानुं कांई पण हुं करुं–ए बुद्धि
छोडी देवी अने पोते पोताना आत्मस्वरूपनी साची समजण
करवानो उद्यम करवो.
–पू. गुरुदेव.
जीवन कतव्यन समजण
आ देहमां रहेलो आत्मा शुद्ध ज्ञान–आनंदस्वरूप छे, पण अनादिथी पोताना वास्तविक स्वरूपना ज्ञान
वगर विकारने तथा संयोगने पोतानुं स्वरूप मानीने ते निज कल्याण चूकी गयेल छे. हुं कोण छुं ने मारुं खरुं
कर्तव्य शुं छे तेना भान वगर, रागने अने जडनी क्रियाने पोतानुं कर्तव्य मानीने अज्ञानी संसारमां रखडी रह्यो
छे. घणा लोको पूछे छे के ‘अमारे शुं करवुं?’ आजे पण एक भाई चिठ्ठी लखीने पूछे छे के ‘आत्माने ओळखवा
ईच्छनार मानवीए संसारमां रहीने केवुं जीवन जीववुं?’ अहीं प्रवचनमां तेनो बधो खूलासो आवी जाय छे.
जुओ, आत्माने शुं करवुं? तेनो उत्तर ए छे के भाई! प्रथम तो आत्मा जडमां कांई ज करी शकतो नथी. शरीर
जड छे, भाषा जड छे, ए जडनी अवस्थानुं कार्य आत्मानी ईच्छाने आधीन थतुं नथी. हवे पोतामां शुभ–
अशुभ ईच्छारूपी विकार तो जीव अनादिथी करतो ज आवे छे, ने तेने पोतानुं कर्तव्य मानीने संसारमां रखडी
रह्यो छे, परंतु तेमां तेनुं हित नथी एटले ते पण जीवनुं खरुं कर्तव्य नथी. जडथी भिन्न अने विकारथी पण
अधिक एवा पोताना ज्ञानानंदस्वभावनी समजण करवी ते मोक्षमार्ग छे, ते ज हितनो उपाय छे, ने ते ज
प्रथम करवा जेवुं कर्तव्य छे. मनुष्यपणुं पामीने जेने आत्मानी ओळखाण करवी होय ने अपूर्व आत्महित करवुं
होय तेणे सत्समागमे आत्माना वास्तविक स्वरूपनो निर्णय करवो ते ज प्रथम करवानुं छे.
अज्ञानी क्रियाकांडीने एम लागे छे के आमां कांई क्रिया करवानुं तो न आव्युं? पण अरे भाई! अनंत–