भान वगर दयादिना शुभ भावो पण जीवे पूर्वे अनंतवार
कर्यां छे, ते कांई जीवननुं ध्येय नथी.
छोडी देवी अने पोते पोताना आत्मस्वरूपनी साची समजण
कर्तव्य शुं छे तेना भान वगर, रागने अने जडनी क्रियाने पोतानुं कर्तव्य मानीने अज्ञानी संसारमां रखडी रह्यो
छे. घणा लोको पूछे छे के ‘अमारे शुं करवुं?’ आजे पण एक भाई चिठ्ठी लखीने पूछे छे के ‘आत्माने ओळखवा
ईच्छनार मानवीए संसारमां रहीने केवुं जीवन जीववुं?’ अहीं प्रवचनमां तेनो बधो खूलासो आवी जाय छे.
जुओ, आत्माने शुं करवुं? तेनो उत्तर ए छे के भाई! प्रथम तो आत्मा जडमां कांई ज करी शकतो नथी. शरीर
जड छे, भाषा जड छे, ए जडनी अवस्थानुं कार्य आत्मानी ईच्छाने आधीन थतुं नथी. हवे पोतामां शुभ–
अशुभ ईच्छारूपी विकार तो जीव अनादिथी करतो ज आवे छे, ने तेने पोतानुं कर्तव्य मानीने संसारमां रखडी
रह्यो छे, परंतु तेमां तेनुं हित नथी एटले ते पण जीवनुं खरुं कर्तव्य नथी. जडथी भिन्न अने विकारथी पण
अधिक एवा पोताना ज्ञानानंदस्वभावनी समजण करवी ते मोक्षमार्ग छे, ते ज हितनो उपाय छे, ने ते ज
प्रथम करवा जेवुं कर्तव्य छे. मनुष्यपणुं पामीने जेने आत्मानी ओळखाण करवी होय ने अपूर्व आत्महित करवुं
होय तेणे सत्समागमे आत्माना वास्तविक स्वरूपनो निर्णय करवो ते ज प्रथम करवानुं छे.