Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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संसारना काम करवा माटे तने उत्साह आवे छे, ने आत्माना ध्यानने माटे तने उत्साह आवतो नथी; तारो
अभिप्राय ज मिथ्या छे. रागरहित चैतन्यनी श्रद्धा पण तुं करतो नथी. आचार्य नाम धरावे, मुनि नाम धरावे ने
कहे के आ काळे सम्यग्दर्शन थई न शके? तो कुंदकुंदआचार्यदेव कहे छे के ते जीव स्वभावथी अत्यंत भ्रष्ट छे.
सम्यग्दर्शन ज तने नथी तो पछी मुनिपणुं के आचार्यपणुं कयांथी आव्युं? सम्यग्दर्शननी ना पाडवी ने वळी पोताने
मुनिपणुं मनाववुं–ते तो मूढता छे. आ काळे सम्यग्दर्शन नथी–तो एनो अर्थ एम थयो–के आ काळे धर्म ज नथी;
एम माननार तो मूढ बहिरात्मा छे. अनुभवप्रकाशमां पण पं. दीपचंदजी कहे छे के स्वरूपनी समजण आ काळे कठण
छे–एम कहीने जेओ स्वरूपनो उद्यम करता नथी तेओ स्वरूपनी चाह मटाडनार बहिरात्मा छे. “आ पंचमकाळ छे
माटे आ काळे स्वरूपनो अनुभव न थाय, आ काळे आत्मानुं ध्यान न थाय–आ काळे सम्यग्दर्शन न थाय,
स्वरूपनी समजण कठण छे”–आम कहेनार जीव आत्मानी समजण करतो नथी, एटले ते बहिरात्मा छे. अहो,
ध्येयस्वभाव आत्मा छे. तेने लक्षमां लीधा वगर धर्म थतो नथी. आत्माना स्वभाव तरफ आ काळे न जई शकाय
एम कहेनारने विषयो तरफ जवुं छे एटले ते तेने सहेला लागे छे. चैतन्यस्वभाव तो सुगम छे–सहज छे, अंतरमां
प्रीति करीने उद्यम करे तो तेनी प्राप्ति थाय छे.
भाई, तुं नक्की कर के तारुं सुख बहारमां छे के अंतरमां छे? सुख तो तारा अंर्तस्वभावमां ज छे. ते
अंर्तस्वभावमां तुं जो......द्रष्टि बहारमां छे तेने बदले अंतरमां वाळ! आ ताराथी थई शके तेवुं ज संतो कहे छे. जेम
अभव्यने कदी चैतन्यनुं ध्यान होतुं नथी, तेम जे जीव एम कहे छे के ‘चैतन्यनुं ध्यान आ काळे न थई शके–तो ते
पण अभव्य जेवो छे. सातमी नरकना संयोगमां पडेलो जीव पण अंतरमां चैतन्यना ध्यान वडे सम्यग्दर्शन पामी जाय
छे, ने तुं मनुष्य अवतार पामीने कहे छे के अमाराथी न थई शके! तो तारी रुचि ज चैतन्य तरफ नथी. चैतन्यना
ध्याननो उपदेश सांभळतां तेनी जेने होंस तो आवती नथी ने तेनो नकार करे छे तो तने अभव्य कह्यो छे. आ तरफ
पोताने चैतन्यना ध्याननी उग्रतानुं जोर छे एटले तेनो निषेध करनारने माटे आचार्यदेव कहे छे के ते अभव्य छे. जेम
प्रवचनसारमां केवळीभगवानना उत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुखनुं घणुं वर्णन करीने पछी कह्युं के केवळी– भगवाननुं सुख सौ
सुखमां उत्कृष्ट छे एम जे श्रद्धा करतो नथी ते अभव्य छे. तेम अहीं पण कहे छे के अहो! चैतन्यनुं ध्यान न थई शके
एम कहीने विषय–कषायोमां रत वर्ते छे ते अभव्य छे, मोक्षना उपायनी तेने प्रीति नथी. अरे! आत्माना स्वभावनी
श्रद्धा करवानी पण जे ना पाडे छे तेना आत्मामां मोक्षना भणकार आवता नथी. धर्म न थई शके ने राग थई शके–ए
वात ज पुरुषार्थहीन मूढ जीवनी छे; आत्मानी समजण करवानुं तुं अशक्य कहे छे, ने विषयोमां वर्तवुं तने सुगम
लागे छे तो तारा पगलां ज ऊंधा छे. चैतन्यस्वभावनी सम्यक्श्रद्धा ने सम्यग्ज्ञान आ काळे पण थाय छे. जेने
आत्मानुं अंतरसुख वहालुं छे ते तो अंतर्मुख थईने ध्यान वडे तेनो पत्तो मेळवे छे. पण जेने संसारसुख वहालुं छे ते
एम कहे छे के आ काळे आत्मानो पत्तो न लागे,–एम कहीने विषय सुखमां ज रत वर्ते छे ने आत्माना
अतीन्द्रियसुखना अनुभवनो उद्यम करतो नथी ते जीव सम्यग्दर्शनादिथी रहित छे, ते पण मोक्ष पामतो नथी; तेथी
आचार्यदेव कहे छे के ते अभव्य छे. ज्यां चैतन्यनी श्रद्धा पण नथी करतो त्यां मोक्षनी लायकात केवी?
चैतन्यशक्तिनो पिंड आत्मा छे तेनी श्रद्धा करीने तेमां एकाग्र थतां मुनिदशा प्रगटे छे, ने त्यां समिति–
गुप्ति तथा महाव्रत होय छे. परंतु जे जीव चैतन्यना ध्याननी ज ना पाडे छे ने व्रत–समिति–महाव्रत होवानुं माने
छे, तो तेने व्रतादिना स्वरूपनी ज खबर नथी. चैतन्यनी एकाग्रता वगर महाव्रत पाळवानुं माने छे, सम्यग्दर्शनादि
वगर व्यवहारचारित्र होवानुं माने छे तो तेने खरेखर चारित्रना स्वरूपनी खबर नथी. निश्चय–सम्यग्दर्शन वगर
मुनिदशानुं चारित्र होय ज नहीं. ने निश्चयसम्यग्दर्शन चैतन्यना ध्यान वगर होय ज नहीं. माटे चैतन्यना ध्याननी
ज जे ना पाडे छे तेने तो सम्यग्दर्शन पण होतुं नथी, को मुनिदशा केवी? ने मुनिदशा
फागणः २४८२ ः ८३ः