Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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चैतन्य स्वभावना ध्यान वडे सम्यग्दर्शनादि
आ काळे पण थई शके छे
(मोक्ष प्राभृत गा. ७३ थी ७७ उपरना प्रवचनोमांथी.)
संतो आत्मानो आनंदस्वभाव बतावीने तेना अनुभवनी प्रेरणा करे
छे, ते सांभळीने हे जीव! तुं उल्लासित था, अने अंतरमां तेनो उद्यम कर, तो
अवश्य तने तेनी प्राप्ति थशे. अनंत भवनो नाश करनार एवा
सम्यग्दर्शननी प्राप्तिनो आ ज उपाय छे, बीजो कोई उपाय नथी. तेथी आनी
जे ना पाडे छे ते भवभ्रमणथी छूटवानी ज ना पाडे छे. आत्मानुं हित करवा
जे जाग्यो तेने रोकनार जगतमां कोई छे ज नहि.
आत्माना ज्ञानानंदस्वरूपने जाणीने तेमां एकाग्र थवुं ते ध्यान छे, ते ज सम्यग्दर्शननो उपाय छे. चैतन्यना
ध्यान वडे सम्यग्दर्शन करवुं ते ज धर्मनुं मूळ छे. परंतु अज्ञानी जीव कहे छे के आ काळे एवुं शुद्धात्मध्यान थई शकतुं
नथी, एटले के आ काळमां सम्यग्दर्शन थई शके नहि.–तो आचार्यदेव कहे छे के एम कहेनार मूर्ख छे. अरे जीव! तुं
रागनी रुचि करीने तेना ध्यानमां तो लीन थाय छे ने आत्माना शुद्धस्वरूपमां एकाग्र थतो नथी, तो तारी रुचि ज
ऊंधी छे. ज्यां रुचि छे त्यां एकाग्रता थाय छे. बहारना संसारना कार्योमां ने विषय–कषायोमां एकाग्र थईने तो तुं
वर्ते छे, त्यां तो तारुं ध्यान जोडाय छे, ने रागरहित चैतन्य स्वरूप आत्मामां तारुं ध्यान जोडतो नथी–तेनी प्रीति
पण करतो नथी, ने काळनुं बहानुं बतावे छे, ते तारी मूढता छे. काळनुं नाम तुं ले छे पण काळ कांई तने स्वरूपनी
रुचि करतां रोकतो नथी. तुं तारा स्वरूपनी रुचि करीने तेमां एकाग्र था, तो कांई कर्म के काळ तने ना पाडता नथी.
आ पंचमकाळमां पण अनेक संतो चैतन्यनुं ध्यान करीने सम्यग्दर्शनादि पाम्या छे ने पामे छे. संसारना काममां ज्यां
प्रीति छे तेना विचारमां केवो लीन थई जाय छे?–एवो लीन थई जाय के खावापीवानुं य भूलाई जाय छे. अने
धर्मनी वात आवे त्यां कहे छे के अमाराथी ते न थई शके! आचार्यदेव कहे छे के तने आत्मानी प्रीति नथी पण
विषयोनी प्रीति छे, तेथी
ः ८२ः
आत्मधर्मः १४९