Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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वगर पंचमहाव्रतादि केवा? ते तो रागमां ज मूढ छे. चिदानंदस्वभावनो जेओ आदर करता नथी तेओ मूढ छे. माटे
धर्मना जिज्ञासुओए आत्माना चिदानंदस्वभावनो आदर करीने तेना ध्याननो उद्यम करवो. आ काळे पण
चैतन्यना ध्यान वडे सम्यग्दर्शनादि थई शके छे,–एम जाणीने हे जीव! तेनो उल्लास कर.
पोतानुं आत्मस्वरूप समजवुं सुगम छे. अने तेमां कष्ट नथी पण आनंद छे. अनादिथी स्वरूपना
अणअभ्यासने लीधे अने रागनी रुचिने लीधे आत्मानी समजण अघरी अने कठण लागे छे, पण जो रागनी रुचि
छोडीने अने आत्माना स्वभावनी रुचि करीने यथार्थ उद्यम करे तो पोतानो आत्मा जरूर अनुभवमां आवे.–ए
रीते पोतानुं स्वरूप समजवुं सहेलुं छे.
बहारनां काम करवां ते आत्माना अधिकारनी वात नथी, पण पोताना स्वरूपनी समजण करवा मांगे तो ते
बे घडीमां पण थई शके छे. आठ वर्षनुं बाळक, सातमी नरकनो नारकी, के देडकुं पण अंतरमां चैतन्यनी लगनी
लगाडीने अपूर्व आत्मानो अनुभव करे छे ने सम्यग्दर्शन पामे छे. आत्मामां अचिंत्य शक्ति छे, ते सवळो थईने
निज शक्तिनी संभाळ करे तो क्षणमात्रमां सम्यग्दर्शनादि पामे छे. निज शक्तिना भान विना अनंत अनंतकाळ
चाल्यो गयो, छतां ज्यां अंतर्मुख थईने अचिंत्य स्वशक्तिनुं अवलंबन लीधुं त्यां ते शक्ति पोतानुं प्रगट कार्य करे
छे–सम्यग्दर्शन–ज्ञानादि करे छे. आ आत्मा जागीने पोतानुं हित–कार्य करवा तैयार थयो, अने ते पोतानुं हित न
करी शके–ए वात तो सांभळवा जेवी पण नथी. आत्मानी पोतानी शक्तिनो विश्वास आववो जोईए, के मारा
आत्मानी अचिंत्य शक्ति वडे हुं मारुं हित साधुं, तेमां कोई बीजानी मदद नथी के बीजो कोई रोकनार नथी.
समयसारमां आचार्यदेव कहे छे के–जो आ आत्मा बे घडी पुद्गलद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध स्वरूपनो
अनुभव करे, तेमां लीन थाय, परिषह आव्ये पण डगे नहि, तो घाती–कर्मनो नाश करी, केवळज्ञान उत्पन्न करी.
मोक्षने प्राप्त थाय. आत्माना अनुभवनो आवो महिमा छे, तो मिथ्यात्वनो नाश करीने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थवी
तो सुलभ छे. माटे श्री गुरुओए ए ज उपदेश प्रधानताथी दीधो छे.
अरे जीव! रागादिकथी जराक छूटो पडीने अंतरमां तारा चैतन्यनी विलासरूप मोजने जो, ते मोजने
अंतरमां देखतां ज तारो शरीरादिनो मोह तुरत ज छूटी जशे. चैतन्यनी मोजना अनुभवथी शरीरादिक परद्रव्य
प्रत्येना मोहने तुं
झगिति एटले के झट दईने छोडी शकीश. आ वात सहेली छे केम के पोताना स्वभावनी छे.
परचीजने पोतानी करवी ते तो अघरुं एटले के अशक्य छे, लाख प्रयत्ने पण ते तो थई शकतुं नथी. अने पोताना
आत्मानो अनुभव करवो ते तो स्वाधीन होवाथी सुगम छे, बे घडीना प्रयत्नथी तेनी प्राप्ति थई शके छे. पण तेने
माटे अंतरनो अपूर्व उत्साह अने प्रयत्न जोईए.
पुरुषार्थहीनपणानी वातो करीने जे रोदणां रूए छे के अरे! अमारे अनेक जातनी प्रतिकूळता, तेमां आत्मानुं
कयांथी करी शकीए!–तेने संतो कहे छे के अरे नमाला!! सातमी नरकनी अनंती प्रतिकूळतामां पडेला जीवो पण
आत्मानो अनुभव पाम्या छे, तो सातमी नरक जेवी पीडा तो तने अहीं नथी ने! आवुं मनुष्यपणुं पाम्यो–
सत्समागम पाम्यो छतां अंतरमां उद्यम नथी करतो, ने रोदणां शुं रोया करे छे!! तने आत्मानी खरेखरी प्रीति होय
तो अंतरमां तेना अनुभवनो उद्यम कर. तुं प्रयत्न कर तो तने कोई रोकनार नथी. आत्मानुं हित करवा जे जाग्यो
तेने आडुं आवनार जगतमां कोई छे ज नहि.
‘अनुभवप्रकाश’ मां कहे छे के–आजना समयमां स्वरूप कठण छे एम कहीने तेनो उद्यम जे छोडी द्ये छे, ने
बहारना विषय–कषायोमां तो उत्साहथी प्रवर्ते छे, तो ते स्वरूपनी चाह मटाडनार बहिरात्मा छे. ज्यारे नवरो होय
त्यारे विकथा करे छे पण त्यारे स्वरूपना परिणाम करे तो कोण रोके छे? घणा एम बहानुं बतावे छे के अमारे काम
घणां, अमने आत्मानुं समजवानी फुरसद नथी मळती! अरे भाई! बीजा काममां तो तारा परिणाम जोडवानी तने
फुरसद मळे छे, ने आत्माना कार्यमां परिणाम जोडवानी तने फुरसद नथी मळती?–ए तो तारी रुचिनी ज ऊंधाई
छे. अहो, देखो अचरजनी वात छे के
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आत्मधर्मः १४९