Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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परपरिणाम तो सुगम अने निजपरिणाम विषम बतावे छे!! अंतरमां सुख छे त्यां तो परिणाम जोडतो नथी, अने
दोडीदोडीने दुःखमां पडे छे. जाणनार पोते,–ते परने तो जाणे ने पोते पोताने न जाणी शके–एम कहेतां लाज पण
नथी आवती! अरे जीव! तने शरम आववी जोईए के तें पोते पोताने ज न जाण्यो! अहो! जेनो जश भव्य जीवो
गाय छे, जेनो अपार महिमा जाणतां महा भवभाव मटी जाय छे–एवा आ शुद्धआत्माने सर्व प्रकारना उद्यम वडे
जाणी लेवो. जगतमां मोक्षार्थी जीवोने करवा जेवुं कर्तव्य होय तो ते एक ज छे.
आत्मा ज्ञान–आनंदमय छे, तेमां अंतर्मुख एकाग्र थईने तेनुं ध्यान करवुं ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
धर्मनो उपाय छे. जे एम कहे छे के आ काळे आत्मानुं ध्यान थई शकतुं नथी, तो ते जीव खरेखर धर्मने मानतो
नथी. ते तो रागादिने ज धर्म माने छे, ते मूढ छे. आ काळे आत्मानुं ध्यान न थाय–आ काळे सम्यग्दर्शन न थाय,–
एनो अर्थ ए ज थयो के आ काळे आत्मा नथी.–आवा जीवनी श्रद्धामां आत्मानो स्वीकार नथी पण व्यवहारना
रागनो ज स्वीकार छे, ने ते राग करतां करतां धर्म थई जशे–एवो तेनो विपरीत अभिप्राय छे.
अहो, पहेले धडाके ज एम उल्लास आववो जोईए के हुं मारा चिदानंदस्वभावनुं ध्यान करीने तेमां एकाग्र
थाउं. राग मारुं स्वरूप नथी.–आवो उल्लास अंतरमां आवे तो आत्मा तरफनुं वीर्य उल्लसे. आत्मस्वभावमां
एकाग्र थईने तेनुं अवलंबन लीधा वगर कदी सम्यग्दर्शनादि धर्म थतो नथी. जे जीव आत्मस्वभावना अवलंबननो
तो नकार करे छे अने राग करतां करतां धर्म थई जवानुं माने छे ते तो मोटो मूढ छे, अभव्यना अभिप्रायमां अने
तेना अभिप्रायमां कांई फेर नथी, तेथी आचार्यदेवे ७२ मी गाथामां तेने अभव्य कह्यो छे. अरे, जो तने धर्मनो प्रेम
होय तो एकवार अंतरमां आत्माना स्वभाव तरफनो उल्लास तो लाव. तने बहारना वलणमां पूजा–भक्ति–जात्रा
वगेरेना शुभरागमां–तो उल्लास आवे छे, तेने बदले ज्ञानानंदस्वभावमां तारा उल्लासने वाळ, तो ते स्वभावमां
एकाग्रता वडे सम्यग्दर्शन वगेरे थाय. अत्यारे आ भरतक्षेत्रमां पण आवुं थई शके छे.
आ जंबुद्वीप एक लाख जोजननो छे, तेना दक्षिण भागमां आपणुं भरतक्षेत्र (प२६ जोजनथी कंईक
अधिक) छे, उत्तर भागमां ऐरवत क्षेत्र छे, ने पूर्व–पश्चिम भागमां विदेह क्षेत्र छे, वच्चे मेरुं पर्वत छे, महाविदेहमां
तो सदाय धर्मकाळ वर्ते छे, ने त्यांथी जीवो मुक्ति पामे छे. आ भरतक्षेत्रमां अत्यारे साक्षात् मोक्ष नथी, परंतु
मोक्षना कारणभूत एवा शुद्धआत्माना ध्यान वडे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थई शके छे.
भरतक्षेत्रमां आ काळे आत्मानुं ध्यान न थई शके एम माननार मोटो मूढ–मिथ्याद्रष्टि छे. साधुपणाना
व्यवहार–आचार–पंचमहाव्रतादि पाळवानुं तो माने छे अने आत्मानी सम्यक् श्रद्धा थवानी ना पाडे छे तो ते
व्यवहारमूढ मिथ्याद्रष्टि जीवने धर्मनी गंध पण नथी. ते आत्माने तो एक कोर मूकीने, रागथी धर्म करवा हाली
नीकळ्‌या छे, पण एवो भगवाननो मार्ग नथी. अरे, वीतराग सर्वज्ञदेवे जिनसूत्रमां आ काळे आ भरतक्षेत्रे पण
आत्मभावनामां स्थित मुनिओने धर्मध्यान होवानुं कह्युं छे; समकिती गृहस्थने चोथा गुणस्थाने पण कयारेक
धर्मध्यान होय छे. चिदानंदस्वरूप आत्माना ध्यान वगर सम्यग्दर्शन पण नथी थतुं. माटे चिदानंद स्वभावना
ध्याननी वात सांभळीने जे उल्लास करतो नथी ने ऊलटो तेनो निषेध करीने अनादर करे छे ते जीवने धर्मनो प्रेम
ज नथी. तेने रागनो ज प्रेम छे; एटले राग सहेलो लागे छे, ने धर्मध्यानने ते अशक्य माने छे.–तेने धर्मना
स्वरूपनुं भान ज नथी.
अंजनचोर वगेरेनुं उदाहरण लईने, “आणुं ताणुं कांई न जाणुं....शेठ कहे परमाणुं” एम कहे, पण पोते
मूळ वातनो कांई निर्णय न करे तो तेने धर्म थाय नहि. भगवाने शुं कह्युं तेनी मूळ वात तो ओळखे अने पछी कोई
सूक्ष्म वात निर्णयमां न आवे तो त्यां ‘भगवाने कह्युं ते प्रमाण’ एम धर्मी समाधान करे छे; आत्मा शुं, आत्मानो
स्वभाव शुं–एवी मूळभूत वात तो भगवाने कह्या प्रमाणे पोते ओळखीने निर्णय करे छे. जे यथार्थ निर्णय करवानी
तो ना पाडे ने राग वडे धर्म माने,–ने पछी एम बोले के “आणु ताणुं कांई न
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